मुगलों का भी दिल अजीज रहा है रोशनी का त्योहार
धर्म के नाम पर समाज को बांटने की फितरत भले ही कुछ कट्टरपंथियों और सांप्रदायिक ताकतों में आज भी कायम है लेकिन इतिहास गवाह है कि मुगलकालीन दौर में ज्यादातर बादशाह न सिर्फ रोशनी का त्योहार पूरी शिद्दत से मनाते थे बल्कि कुछ शंहशाह तो बाकायदा लक्ष्मी पूजन कर गंगा जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे।
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धर्म के नाम पर समाज को बांटने की फितरत भले ही कुछ कट्टरपंथियों और सांप्रदायिक ताकतों में आज भी कायम है लेकिन इतिहास गवाह है कि मुगलकालीन दौर में ज्यादातर बादशाह न सिर्फ रोशनी का त्योहार पूरी शिद्दत से मनाते थे बल्कि कुछ शंहशाह तो बाकायदा लक्ष्मी पूजन कर गंगा जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे।
इतिहासकारों के मुताबिक हिंदुओं की तरह मुगल बादशाह भी लक्ष्मी-गणेश पूजन कर धूमधाम से दिवाली मनाते थे। इस दौरान गरीबों को उपहार बांटते थे। आतिशबाजी का आनंद लेने के बाद शहर में निकलकर रोशनी का लुत्फ उठाते थे। वे इस पर्व को कौमी एकता त्यौहार के रूप में मनाते थे।
मुगलों का शासन बाबर (1526) से लेकर बहादुर शाह द्वितीय (1857) तक रहा। इतिहासकारों के अनुसार मु्गल बादशाहों में औरंगजेब को छोड़कर लगभग सभी ने कभी मजहब के साथ सियासत का घालमेल नहीं किया। उन्होने अपनी हुकूमत से हमेशा उदारवादी तौर तरीके अपनाए। उनकी हुकूमत के दौरान धर्मिक स्वतंत्रता अपना धर्म पालन तक सीमित नहीं थी बल्कि उन्होने एक ऐसा माहौल तैयार किया जिसमें सभी धर्मों को मनाने वाले एक दूसरे के त्यौहारों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे,दीवाली उनमें से एक प्रमुख था।
मुगलकाल में दीवाली पर्व पर एक अलग प्रकार की रौनक होती थी। इसे केवल हिन्दू पर्व नहीं अपितु कौमी त्यौहार के रूप में धूमधाम से मानाया जाता था। मुगल काल में जिस उत्साह से हिंदू-मुस्लिम एक दूसरे के त्यौहारों पर मेल- मिलाप कर भाईचारे, सांप्रदायिक एवं धार्मिक सौहार्द का परिचय देकर मनाते थे, अब उसकी खासी कमी दिखाई देती है। मुगल बादशाह बाबर ने इस त्यौहार को ‘‘एक खुशी का मौका’’ के रूप में मान्यता प्रदान किया था। वे इस त्यौहार को जोश-ओ-खरोश से मनाते थे। इस दिन पूरे महल को दुल्हन की तरह सजा कर कई पंक्तियों में हजारों की संख्या में मिट्टी के दीप प्रज्वलित किये जाते थे। शहंशाह अपनी गरीब रियाया में नये वस, मिठाइयां और उपहार बांटते थे।
बाबर के उत्तराधिकारी हुमांयू ने इस परंपरा को केवल बरकरार ही नहीं रखा बल्कि इसे और बढ़ावा देने के साथ हर्षोल्लास के साथ मनाते भी थे। इस अवसर पर वह लक्ष्मी के साथ अन्य देवी-देवताओं की विधि-विधान से पूजा अर्चना करवाते थे। तत्कालीन ऐतिहासिक पुस्तकों, इतिहासकार, साहित्यकार और समीक्षकों ने मुगल शासकों के बारे में दीवाली और लक्ष्मी पूजन का वर्णन किया है।
अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल ने अपनी पुस्तक‘‘आइना-ए-अकबरी’’ में अकबर के दीवाली मनाने का विस्तृत जिक्र किया है। पुस्तक में लिखा है ‘‘अकबर ने अग्नि और प्रकाश की पूजा करना धर्मिक कर्तव्य मानते थे। इसे नजरंदाज करने वाले एक तरह सर्वशक्तिमान ईश्वर को विस्मृत करते हैं।’’उर्दू के नामचीन साहित्यकार ख्वाजा हसन निजामी ने अपनी अमर कृति ‘‘मुगल दरबार के रोजनामचा से’’में दीवाली को धूमधाम से मनाने का जिक्र किया है।
यूरोपियन ट्रेवलर्स की किताबों में किलों के रहन-सहन के जिक्र में जश्न-ए-चराग़ा (दीवाली) का जिक्र प्रमुख रूप से है। इंग्लैंड के यात्री एन्ड्रयू ने ‘‘जकाउल्लाह आफ दिल्ली’’ नामक पुस्तक में दिवाली के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है। उर्दू के एक अन्य साहित्यकार शहिद अहमद देहलवी ने ‘‘मेरी दिल्ली’’नामक पुस्तक में बहादुरशाह जफर द्वारा विधि- विधान से दीवाली पूजन और मनाने का जिक्र किया है। ‘‘तुजुक-ए-जहांगीर’’ नामक पुस्तक में जहांगीर काल की दीवाली का वर्णन किया गया है। जहांगीर रात में अपनी बेगम के साथ आतिशबाजी का मजा लेने भी निकलते थे ।
शहंशाहों में हुमांयू,बेटा बाबर, जलालुद्दीन अकबर, शाहजहां और मुगल सम्राज्य के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के दौर में महल में दीवाली की रात लक्ष्मी पूजन का कई प्राचीन पुस्तकों में जिक्र मिलता है। इस मौके पर शाही पंडित महालक्ष्मी देवी के साथ अन्य देवी देवताओं का भी पूजन करवाते थे। सम्राट बहादुर शाह जफर को उनके शाही पुजारी निश्चित समय पर लक्ष्मी की मूर्ति को लेकर लाल किले के दीवान-ए- खास में आते थे जहां सम्राट विधि-विधान से लक्ष्मी पूजन करते थे। उसके बाद पंडित को दक्षिणा दी जाती थी।
हुमायूं की दिलचस्पी हिन्दू परंपरा तुलादान में भी थी। वह स्वयं तुला दान करते थे। उसके बाद बादशाह जफर भी तुला दान करते थे। उन्हें सात किस्म के अनाजों से और दूसरी बार चांदी के सिक्कों से तौल कर गरीबों में बांट दिया जाता था।
इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि शहंशाह अकबर के शासनकाल में पूरे देश के अंदर ‘‘गंगा-जमुनी तहजीब’’ और परवान चढ़ी। उनके शासनकाल में दीवाली जश्न की शुरूआत आगरा से की गयी थी। बादशाह शाहजहां जितनी शान-ओ-शौकत से ईद मनाते थे ठीक उसी तरह दीवाली पर्व भी मनाते थे। दीवाली पर पूरा किला रोशनी में जगमगाने लगता था। किले के अंदर स्थित मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। इस मौके पर शाहजहां अपने दरबारियों, सैनिकों और अपनी रिआया में मिठाई बंटवाते थे।
अबुल फजल ने ‘आईना-ए-अकबरी‘ में लिखा है कि अकबर दिवाली की सांझ अपने पूरे राज्य में मुंडेरों पर दीये प्रज्वलित करवाते। महल की सबसे लंबी मीनार पर बीस गज लंबे बांस पर कंदील लटकाए जाते थे। यही नहीं, महल में पूजा दरबार आयोजित किया जाता था।
बौद्ध विद्वान राहुल सांस्कृतायन ने अकबर की जीवनी में लिखा है,‘‘ वह दशहरा उत्सव बड़े ही शान-ओ-शौकत से मनाता।’’ दीवाली की रात लाल किले और शाही महलों को बेहतरीन ढंग से सजाया जाता था और उन पर मिट्टी के दीपकों को प्रज्वलित किया जाता था जिससे पूरी किले और महलों की दीवार झिलमिलाने लगती थी। पूजन के बाद सम्राट अपने शाही हाथी पर सवार होकर आतिशबाजी और रोशनी का लुत्फ उठाने निकलते थे।
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