चुनाव : बहुत कुछ है दांव पर

Last Updated 06 Jan 2017 06:13:46 AM IST

बुधवार को घोषित पांच राज्यों की विधान सभा के चुनाव को उन राज्यों की निवर्तमान सरकारों और मुख्यमंत्रियों की जगह नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के नेतृत्व पर एक मिनी जनमत संग्रह माना जाए तो गलत नहीं होगा, बल्कि राहुल से भी ज्यादा मोदी के लिए.


चुनाव : बहुत कुछ है दांव पर

अखिलेश यादव, प्रकाश सिंह बादल और हरीश रावत अपने-अपने राज्य की राजनीति में कम बड़ी हस्ती नहीं हैं और चुनाव इनके इर्द-गिर्द ही लड़े जाएंगे पर नतीजा इन मुख्यमंत्रियों से ज्यादा प्रधानमंत्री और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता के लिए मतलब रखेगा. मोदी के लिए तो ये चुनाव एक तरह से मध्यावधि समीक्षा जैसे होंगे और अगर वे सिर्फ  उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को जितवा देते हैं तो 2014 के बाद उनकी चमक में जो कमी आई है, वह वापस हो जाएगी. और अगर वे बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को नहीं जिता पाए तो विपक्ष ही कौन कहे पार्टी के अंदर से भी विरोध के स्वर उठने लगेंगे-खासकर नोटबंदी के मसले पर.

काफी सारे राजनैतिक पंडित भी कहते मिलेंगे कि नोटबंदी का एक कारण ये विधान सभा चुनाव, जिनमें सबसे प्रमुख उत्तर प्रदेश है, थे. यह बात न भी मानी जाए तब भी यह बात बनी रहेगी कि नोटबंदी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा ही नहीं, गुजरात विधानसभा चुनाव तक सबसे बड़ा और प्रभावी मुद्दा रहेगा और कहना न होगा कि इन चुनाव का नोटबंदी से लेकर देश की शीर्ष राजनीति तक पर जबरदस्त असर होगा. इस राजनैतिक फैसले से भी ज्यादा हर आदमी के जीवन को छूने वाले मुद्दे ने आठ नवम्बर से पहले की सारी राजनैतिक कसरत पर पानी फेर दिया है.

आठ नवम्बर के पहले की सारी स्थितियां बदल गई हैं. और समय बीतते जाने के साथ ही भाजपा के लिए परेशानियां भी बढ़ती जा रही हैं; क्योंकि नोटबंदी का लाभ जाने क्या होगा नुकसान सबको दिखने लगा है. देश की राजनीति और इस बार के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वजन रखने वाले उत्तर प्रदेश में जरूर समाजवादी पार्टी के झगड़े ने काफी सुर्खियां बटोरीं और नोटबंदी के पचास दिन पूरे होने पर उसकी कायदे की समीक्षा वाला पक्ष भुलवा दिया पर यह दबने वाला मसला नहीं है, बल्कि उलटे इसने अखलाक प्रकरण, दंगों की रिपोर्ट, मंदिर निर्माण की चर्चा, गैर जाटव वोटों की कसरत, कुर्मी-कोइरी/कुशवाहा वोटों का गणित, ब्राह्मण-ठाकुर पटाने की मारामारी ही नहीं, बड़ी-बड़ी रैलियों और दो करोड़ किसानों की कर्ज माफी की अर्जी जैसे सारे मसले बिला दिए हैं और जो नई सच्चाई है, उससे लगता है कि अभी तक जनसंघ और भाजपा का आधार रहा बनिया वोट इस बार कसम खाकर उसे हराने के लिए वोट करेगा-लगभग मुसलमानों की तरह. और आज यादव और दलित वोट भी पहले की तरह गोलबंद नहीं दिखता. यह सपा और बसपा के लिए नुकसानदेह भी हो सकता है, फायदेमंद भी क्योंकि बाकी जातियां पहले जितना भड़कने के मूड में नहीं लगतीं.

लड़ाई सबसे बड़ी और वजनदार भले ही उत्तर प्रदेश की हो पर बाकी राज्य कम दिलचस्प नहीं हैं. पंजाब में सत्ता परिवर्तन पक्का लगता है तो उत्तराखंड में भाजपा ने सत्ता बदलाव का 2016 का प्रयास जिस तरह किया, वह 2017 में नुकसान करता लग रहा है. गोवा की लड़ाई भी भाजपा के लिए पहले से काफी मुश्किल है क्योंकि महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी तो तीखे तेवर दिखा ही रही है. स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई पर विरोध करने वाली संघ की स्थानीय शाखा अब पार्टी बनाकर भाजपा को चुनौती दे रही है.

और दो राज्यों, पंजाब और गोवा के चुनाव आप पार्टी की मजबूत चुनौती के लिए भी दिलचस्प हो गए हैं. और अगर उसने जीत हासिल कर ली तो यह मोदी को जितना नुकसान पहुंचाएगी, उससे कई गुना ज्यादा कांग्रेस को और इस मायने में मोदी खुश हो सकते हैं कि कांग्रेस विपक्ष की धुरी बनने और उम्मीद और जोश पाने से रह जाएगी.  अगर कांग्रेस अभी तीन राज्य जीत लेगी तो 2019 के लिए उसकी शुरुआत अच्छी हो जाएगी. इस लेखक जैसे काफी सारे लोगों को इरोम शर्मिंला के चुनावी राजनीति में उतरने को लेकर मणिपुर के चुनाव में भी खासी रु चि है. ज्यादा बड़ी सच्चाई यही है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में ही नहीं विधानसभा वाले किसी राज्य में किसी भी कीमत पर 2014 का प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी.

और अगर भाजपा उत्तर प्रदेश नहीं जीत पाती है और अन्य राज्यों में उम्मीद से कम भी नुकसान उठाती है तो इसका उन प्रदेशों से ज्यादा मुल्क की राजनीति पर असर होगा. बिहार के बाद उत्तर प्रदेश न जीतने का मतलब मोदी का जादू तीन साल से भी कम समय में उतर जाना होगा. और मोदी का चढ़ना और 2014 की एक बड़ी राजनैतिक परिघटना थी तो मोदी का राजनैतिक अवसान की शुरुआत भी 2017 की उतनी ही बड़ी घटना होगी. अगर 2017 के चुनावों के नतीजे भाजपा के प्रतिकूल भी हुए तो यह सवाल बना ही रहेगा कि मोदी और भाजपा का विकल्प कौन. इसका एक कारण तो यही है कि उत्तर प्रदेश को छोड़कर इन सभी राज्यों कांग्रेस मुख्य विपक्ष है पर वही भाजपा को हरा पाएगी, यह कहना मुश्किल है. एक तो केजरीवाल की आम आदमी पार्टी इन राज्यों में जोर-शोर से लगी है, दूसरे कांग्रेस उतनी आक्रामक लग नहीं रही है.

और मोदी जी को भी यह सूट करता है कि कांग्रेस और राहुल की केजरीवाल जैसा नेता आगे आए जिसके इर्द-गिर्द विपक्षी एकता बनना मुश्किल है. उत्तर प्रदेश में अगर मायावती जीतती हैं तब भी और सपा जीतती है तब और भी ज्यादा संभावना है कि मुलायम सिंह मोदी विरोधी राजनीति का ध्रुव बनने का दावा करें. और अगर नोटबंदी से अपनी मंशा के प्रति लोगों में भरोसा बनाए रखने में सफल होकर मोदी बाकी सभी प्रदेश हारकर भी उत्तर प्रदेश जीत लेते हैं या पंजाब, गोवा और गुजरात में विपक्षी बिखराव का लाभ उन्हें मिल जाता है तब उनकी राजनीति क्या होगी यह सहज कल्पना की जा सकती है. मोदी, अमित शाह और जेटली के राज की धारणा एकल राज में बदल जाएगी. और मोदी को चुनौती देना फिलहाल असम्भव होगा. इससे उलट यह भी हो सकता है कि विधान सभा चुनाव की पराजय मोदी के नेतृत्व पर पार्टी और सरकार के अंदर भी सवाल उठाने लगेगी. विपक्ष के साथ ही भाजपा और संघ के लोगों के आज के समर्थन को विरोध में बदलते देर नहीं लगेगी.

अरविन्द मोहन
लेखक


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