छोटे दलों के नेताओं का दलितों,पिछड़े और गरीबों के हकों की लड़ाई लड़ने की हकीकत !
जातिगत आधार पर छोटी-छोटी राजनैतिक पार्टियां बनाकर गरीब ,मजदूर ,दलित और पिछड़े वर्गों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले नेता किसका भला कर रहे हैं। अब तक कितनों का भला कर चुके हैं ,उनके पास इसका कोई हिसाब नहीं है।
![]() जीतन राम मांझी और ओमप्रकाश राजभर |
अपनी ही जाति के लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखकर उन्हीं के वोटों की ताकत से अपना और अपने परिवार का भला करने वाले ऐसे नेताओं को देश की बड़ी पार्टियां भी कुछ लालच देकर बड़ी आसानी से अपने पाले में कर लेती हैं। क्यों कि बड़ी पार्टियों को ऐसी पार्टी के नेताओं की हैसियत और उनकी सीमाओं का अच्छी तरह से पता होता है। हालांकि इस तरह के छोटे दल कमोबेश पूरे देश में हैं, लेकिन आज बात हो रही है उत्तर प्रदेश की एक पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और बिहार की हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा की। इन दोनों दलों का आधार सिर्फ और सिर्फ उनकी जातियां हैं, जिन पर इन पार्टियों की शायद उतनी पकड़ नहीं है, जितना ये दावा करते हैं। हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी कुछ दिन पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आँख दिखाकर अलग हो गए और भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए में शामिल हो गए। बीते शनिवार को उत्तर प्रदेश की एक ऐसी ही छोटी पार्टी के नेता समाजवादी गठबंधन से अलग होकर एनडीए में शामिल हो गए। आज यह दोनों नेता गरीबों के उत्थान की बात कर रहे हैं। ये दोनों नेता दलितों और पिछड़े वर्ग की लड़ाई लड़ने का दावा कर रहे हैं।
ओमप्रकाश राजभर 1995 से राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने कांसीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर राजनीति की शुरुवात की थी। कुछ वर्षों बाद वो अपना दल के साथ जुड़ गए। उस समय अपना दल के संस्थापक डॉ सोने लाल पटेल जीवित थे। कुछ वर्षों बाद ओमप्रकाश राजभर का अपना दल से भी मोहभंग हो गया और उन्होंने 2002 में अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बना ली, जिसका नाम रखा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। अपने पार्टी के बैनर तले अपनी बिरादरी के लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखाकर उनकी लड़ाई लड़ने का दावा करते रहे। शुरू के 16, 17 बरस उनके ऐसे ही गुजर गए। उन्हें राजनीतिक रूप से कोई लाभ नहीं मिल पाया। उनकी पार्टी ने कई चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। 2017 में उन्होंने एनडीए से समझौता कर लिया। उस वर्ष उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उन्हें 8 सीटें मिलीं, जिनमें से उन्हें 4 सीटों पर जीत मिली। ओमप्रकाश राजभर भी पहली बार विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे। उन्हें कोटे के तहत उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बनाया गया। लगभग 2 वर्षों बाद उनका एनडीए से भी मोहभंग हो गया। वह पार्टी से अलग हो गए। 2022 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया। उन्हें उम्मीद थी कि इस बार उत्तर प्रदेश में शायद भाजपा की सरकार ना बने। शायद उन्हें आभास हुआ कि समाजवादी पार्टी की सरकार बन सकती है, लेकिन जैसा उन्होंने सोचा था वैसा हो नहीं पाया। उन्होंने समाजवादी पार्टी से भी नाता तोड़ लिया।
ओमप्रकाश राजभर ने कभी एक बयान दिया था कि राम मंदिर बनाने से बढ़िया है कि गरीब, दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चों को शिक्षित करने में पैसा लगाया जाए। यानी भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए के कुछ मुद्दों को लेकर उनकी असहमति थी। कुछ महीने पहले उन्होंने एक बयान दिया था कि विपक्ष की पार्टियां अगर मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाती हैं तो वह विपक्ष के साथ आ जाएंगे। उन्होंने मायावती का नाम लेकर उत्तर प्रदेश के दलितों पर डोरे डालने की कोशिश की थी। उन्हें लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा हो रही थी कि ओमप्रकाश राजभर किसके साथ गठबंधन करेंगे। लेकिन शनिवार को उसका भी पटाक्षेप हो गया। उन्होंने गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में एनडीए में शामिल होने का फैसला कर लिया। ओमप्रकाश राजभर वही नेता हैं, जिन्होंने 2017 के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहते हुए यह आरोप लगाकर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था कि वो गरीबों और पिछड़ों की जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसमें सरकार का साथ नहीं मिल रहा है। आज ओमप्रकाश राजभर उसी पार्टी की सरकार में शामिल होने जा रहे हैं जिस पर कभी उन्होंने उपेक्षित करने का आरोप लगाया था। ऐसे में कोई उनसे सवाल पूछे कि क्या दुबारा वो उपेक्षित नहीं होंगे। दलितों और गरीबों की दुहाई देने वाले ओमप्रकाश राजभर की चतुराई को जनता भली भांति समझ रही है। जनता यह भी समझ रही है कि गरीबों और दलितों की आड़ में वो अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। अपनी राजनीतिक गोटी फिट करना चाहते हैं। अपने साथ-साथ अपने बच्चों का राजनीतिक भविष्य संवारना चाहते हैं। ऐसे नेताओं के दिल में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए कोई हमदर्दी नहीं है।
दूसरे नेता हैं, जीतन राम मांझी। कभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रहमों करम पर मुख्यमंत्री जैसे अहम पद पर सुशोभित हुए थे। जीतन राम मांझी ने भी 2015 में एनडीए से अलग होकर यानी जदयू से अलग होकर अपनी खुद की पार्टी बना ली थी। पार्टी का नाम रखा था, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा। दो-तीन महीने पहले तक जीतन राम बड़ी-बड़ी बातें करते थे। अक्सर कहा करते थे कि वह नीतीश कुमार का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। लेकिन उन्होंने भी एक महीने पहले बिहार की सरकार से अपने आपको अलग कर लिया था। उनके बेटे संतोष सुमन जो बिहार सरकार में मंत्री हुआ करते थे, उनसे इस्तीफा दिलवा दिया था। जीतन राम मांझी ने आरोप लगाया कि नीतीश कुमार उनकी पार्टी को अपनी पार्टी में विलय करवाने के लिए दबाव बना रहे हैं। जीतन माझी मुसहर समाज से आते हैं। मुसहर समाज को बिहार में महादलित कहा जाता है। पूरे बिहार वासियों को पता है कि मुसहर समाज की भलाई के लिए नीतीश कुमार ने क्या-क्या नहीं किया, बावजूद इसके जीतन राम मांझी, नीतीश कुमार पर कई गंभीर आरोप लगा रहे हैं। हकीकत यह है कि, वह शायद इस उम्मीद में थे कि उनके बेटे को बिहार मंत्रिमंडल में कोई बड़ा पोर्टफोलियो मिल जाएगा। जो मिल नहीं पाया। लिहाजा उन्होंने अपने बेटे से इस्तीफा दिलवा दिया। जबकि दुनिया को यह बता रहे हैं कि नीतीश कुमार उनकी पार्टी को अपनी पार्टी में विलय कराना चाहते थे। दरअसल उनकी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही बढ़ गईं थीं। वो अपने लिए कोई बड़ी पोस्ट चाह रहे थे जबकि अपने बेटे को बड़ा पोर्टफोलियो दिलाना चाह रहे थे। जब उनकी बातें नहीं मानी गईं तो अचानक नीतीश कुमार उनको बुरा लगने लगे।
जिस व्यक्ति ने उनको मुख्यमंत्री जैसे अहम पद पर बैठाया था, उसे एक झटके में छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए। आज दोनों नेता जीतन राम मांझी, ओमप्रकाश राजभर और उनकी पार्टियां एनडीए में शामिल हो चुकी हैं। भाजपा को ऐसे छोटे दलों की इस समय आवश्यकता है। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी इनके खाते में भी दो चार सांसदी की सीटें दे देगी। उसके बदले बीजेपी के कई उम्मीदवार उनकी वोटों के बलबूते अपनी नैया पार लगा लेंगे। पिछड़े समाज के ये दोनों नेता भले ही बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हों, भले ही दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यको की लड़ाई लड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन उनकी यह बातें सरासर बेईमानी लगती हैं। इन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने आप को और अपने परिवार के सदस्यों को स्थापित करना है। इनका दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा भी अच्छी तरह जानती है कि यह छोटे दल उनकी पकड़ से बाहर जा ही नहीं सकते। लिहाजा थोड़ा बहुत लालच देकर उन्हें अपने पाले में करके एक तीर से कई निशाने करने की कोशिश में लगी हुई है। जिस तरीके से देश में ऐसे छोटे-छोटे दल बनते जा रहे हैं, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वह समय दूर नहीं है जब देश भर में अलग-अलग जातियों की अपनी-अपनी राजनैतिक पार्टियां होंगी। अगर ऐसा होता है तो शायद लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग जातिगत आधारित राजनैतिक पार्टियों को लेकर कोई ठोस कदम उठाए।
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