नहाय-खाय के साथ आज से लोक आस्था का महापर्व छठ शुरू, गूंजने लगे छठी मईया के गीत

Last Updated 31 Oct 2019 12:08:46 PM IST

भगवान सूर्य की आराधना का चार दिवसीय महापर्व छठ नहाय-खाय के साथ गुरूवा से शुरू हो गया। बाजार में सूप, दउरा, आम की लकड़ी, चूल्हा और फलों की दुकानें सज चुकी हैं।


छठ पर्व का शुभारम्भ 31 अक्टूबर गुरूवार को 'नहाय-खाय' के साथ प्रारम्भ हुआ। लोकआस्था के महापर्व छठ के पहले दिन व्रती नर-नारियों ने अंत:करण की शुद्धि के लिए नहाय-खाय के संकल्प के तहत नदियों-तालाबों के निर्मल एवं स्वच्छ जल में स्नान करने के बाद अरवा भोजन ग्रहण कर इस व्रत को शुरू किया। परिवार की सुख-समृद्धि तथा कष्टों के निवारण के लिए किये जाने वाले इस व्रत की एक खासियत यह भी है कि इस पर्व को करने के लिए किसी पुरोहित(पंडित) की आवश्यकता नहीं होती है।

व्रत रखने वाली महिलाएं इस दिन स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी खाएंगी। इस दिन खाने में सेंधा नमक का ही प्रयोग किया जाता है।

महापर्व छठ के दूसरे दिन शुक्रवार को कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के मौके पर दिनभर व्रत रखने वाली महिलाएं एक बार फिर नदियों, तालाबों में स्नान करने के बाद अपना उपवास शुरू करेंगे। व्रत रखने वाली महिलाएं उपवास कर शाम को विधि विधान से रोटी तथा गुड़ से बनी खीर का प्रसाद तैयार करेंगी और फिर सूर्य भगवान का स्मरण कर प्रसाद ग्रहण करेंगी। इस पूजा को 'खरना' कहा जाता।

इसके अगले दिन शनिवार से व्रतियों का 36 घंटों का निर्जला उपवास शुरू हो जाएगा। शाम को व्रत रखने वाली महिलाएं नदी, तालाबों या अन्य जलाशयों में जाकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य अर्पित करेंगी और फिर रविवार को उदीयमान सूर्य को दूसरा अर्ध्य देने के बाद पारण के साथ पूरा होगा। दूसर अर्ध्य अर्पित करने के बाद ही  व्रतियों का करीब 36 घंटे का निराहार व्रत समाप्त होता है और वे अन्न-जल ग्रहण करते हैं।

सदियों पुराने इस पर्व पर सूर्य देवता की पूजा होती है। यह मुख्य तौर पर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों द्वारा मनाया जाता है। दोनों राज्यों के लोग इस मौके पर पास के नदी तटों या जलाशयों के किनारे एकत्रित होते हैं और उगते सूर्य और डूबते सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है।

मान्यता : लोक आस्था के इस पर्व के बारे में मान्यता है कि इसका आरंभ कुंती द्वारा सूर्य की आराधना से हुआ था. आराधना में कुंती ने सूर्य से अपने पुत्र के कल्याण की कामना की थी। इस पर्व के साथ यह कथा भी जुड़ती है जब पांडवों के राजपाठ छिन जाने पर द्रौपदी ने छठ का व्रत रखा था. मनोकामना पूरी होने पर उन्होंने छठ का व्रत किया था। परंपरा में छठ का व्रत पारिवारिक सुख समृद्धि और मनोकामना की पूर्ति के लिए किया जाता है। छठ पर्व से जहां एक ओर गहरी आस्था जुड़ी है, वहीं इन दिनों होने वाले प्रकृति के बदलाव की दृष्टि से भी अनुकूल माना जाता है। इन परिवर्तनों के चलते सूर्य की पराबैंगनी किरणों प्रकृति के लिए कुछ प्रतिकूल होने लगती है. पर्व का अनुशासन विधान और संकल्प उन प्रतिकूलताओं को एक हद तक रोकता है. सूर्य की पराबैंगनी क्रियाओं का अधिकांश भाग वायु मंडल में ही रह जाता है।

सूर्य उपासना का उद्देश्य : इसका उल्लेख वेदों में भी मिलता है. तीन दिन तक मनने वाला यह पर्व चौथ के दिन से शुरू होता है. इसमें दो दिन व्रत रखने की परंपरा है। गंगा यमुना या किसी पवित्र नदी या तालाब के किनारे की जाती है. एक तरह से ऊष्मा और जल जिस तरह मानव जीवन में अपनी महत्ता रखता है, उसके प्रति हमारी कृतज्ञता भी होती है।

विशेषता : पर्व की विशेषता यह है कि घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं. छठ पूजा का पहला दिन नहाय खाय के रूप में मनाया जाता है. जो रविवार को है। इस पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है। पर्व के लिए खासतौर पर ठेकुवा पकवान तैयार किया जाता है. यह बाजरे के आटे, गुड़ और तिल से बने पुए की तरह होता है।

इसके अलावा नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, एक घड़ा, गन्ने के पेड़ आदि देवकरी (पूजा स्थल)में रखे जाते हैं. पहले दिन महिलाएं स्नान कर चावल लौकी, चने की दाल का भोजन करती है। और फिर अगले दिन व्रत रखेंगे। इस दिन शाम को गन्ने के रस की खीर बनाकर देवकरी में मिट्टी के बर्तन में पांच जगह खीर रखकर उसी से हवन करेंगे। बाद में इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।



विधि : पूजा के लिए बांद की बनी एक बड़ी टोकरी में पूजा का सामान रख कर देवकरी में रख दिया जाता है। गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन दीपक और मिट्टी के हाथी आदि देवकरी में रखे जाते हैं। वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में कपड़े में लपेट कर नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा का सामान दोने में रख कर नदी समुद्र या पोखर में ले जाया जाता है। इसकी पवित्रता बनी रहे इसके लिए इसे सिर से ऊपर की तरफ रखते हैं। अस्त होते सूर्य को जल और दूध का अर्ध्य दिया जाता है। छठी मैया की पूजा की जाती है। सूप में सारा सामान लेकर पानी से अर्ध्य दिया जाता है, पांच बार परिक्रमा की जाती है। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान देवक री में रखा जाता है और रात को फिर पूजा की जाती है।

श्रद्धालु कार्तिक मांस में कृष्ण पक्ष की अंधेरी रात में तड़के ही सूर्योदय से पहले नया पूजा का सामान लेकर नदी या जल किनारे जाते हैं। नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बनाकर उसमें रखा जाता है। सूर्य की पहली किरण दिखाई देते ही उल्लास की लहर चारों और फैल जाती है। इस उल्लास उमंग के साथ यह व्रत एक कठिन तपस्या के रूप में जाना जाता है। आम तौर पर महिलाएं इस व्रत को करती हैं।  उपवास लेने वाले को चार दिन का लगातार उपवास करना पड़ता है।

छठ गीतों का महत्व :
इसकी महिमा अपार है। इन्हें भावपूर्ण ढंग से गाया जाता है। ‘उग न सूरुज देव भइलो अरग के बेर,’ ‘कांच ही बांस के बहगिया बहगी लचकत जाए’, ‘केलवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मेहराय,’ ‘चार कोना के पोखरवा’ ‘हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी’ जैसे अनगिनत छठ गीतों के साथ इस पर्व की महत्ता बढ़ती है। छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष  इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आराध्य से परिपूर्ण यह पर्व लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन में भी मिठास घोलता है।

खरना से लेकर अर्ध्यदान तक लोगों की उपस्थिति इसे लोकपर्व की गरिमा और विराट रूप देती है।

 

एजेंसी/समय लाइव डेस्क
नई दिल्ली


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