गणपति बप्पा मोरया: जानें गणेश महोत्सव का इतिहास

Last Updated 27 Aug 2017 11:40:33 AM IST

शुभत्व के प्रतीक विघ्नहर्ता गणेश भारतीय संस्कृति एवं जीवनशैली में गहराई से समाए हैं. इनकी प्रतिष्ठा हिन्दू समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय लोकदेवता के रूप में है.


गणपति बप्पा मोरया

कोई भी शुभकार्य गणपति वंदना के बिना सफल नहीं होता. चाहे विवाह का मांगलिक अवसर हो, शिशुजन्म, गृहप्रवेश, नये घर, दुकान, मकान या भूमि का शिलान्यास, मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव हो या कोई पर्व-त्योहार, प्रत्येक कार्य का शुभारंभ गणपति पूजन के साथ ही किया जाता है

आस्था का उत्सव :
देश-दुनिया के श्रद्धालु अपने आराध्य मंगलमूर्ति गजवदन विनायक का दस दिवसीय जन्मोत्सव प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की गणोश चतुर्थी से लेकर अनंत चतुदर्शी तिथि तक पूरी आस्था से मनाते हैं. यह उत्सव पांच सितम्बर को सम्पन्न होगा. गणेशोत्सव में हिन्दुओं की आस्था का अद्भुत नजारा दिखायी देता है. श्रद्धालु गणेश चतुर्थी के दिन गाजे-बाजे के साथ श्रीगणेश की मनोहारी प्रतिमा को पूरे साज-श्रृंगार व विधि-विधान से अपने घरों, मंदिरों व  पूजा पंडालों में स्थापित करते हैं. दस दिनों तक भाव श्रद्धा से गणपति बप्पा की पूजा-आराधना के बाद ग्यारहवें दिन महाआरती व पुष्पांजलि के साथ देव प्रतिमा का जलविसर्जन कर दिया जाता है. यूं तो पूरे देश व दुनियाभर में गणेश पूजन होता है, मगर महाराष्ट्र व पुणे का गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रसिद्ध है. इस दौरान वहां हजारों स्थानों पर प्रतिष्ठित गणेश छवियों में भारतीय मूर्ति शिल्प के सुंदरतम स्वरूप के दर्शन होते हैं. विघ्नहर्ता के इस जन्मोत्सव की भव्यता देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में देखते ही बनती है जहां विशाल पूजा पंडालों में नाना रूपों में अलंकृत मनोहारी गणेश प्रतिमाएं लोगों की आस्था को स्वर देती प्रतीत होती हैं.   

क्यूं विशिष्ट हैं गजानन :
गजाजन गणेश हिन्दुओं के प्रथम आराध्य देव हैं. विघ्नहर्ता की अद्भुत देह अनेक लोकहितकारी शिक्षाएं देती है. उनका गजमस्तक बुद्धिमत्ता का प्रतीक है. सूपकर्ण कान का कच्चा न होने की शिक्षा देते हैं. हम कान से सुनें सभी की, लेकिन केवल सत्य को ग्रहण करें. अगम्य भावों की परिचायक उनकी छोटी छोटी आंखें जीवन में सूक्ष्म व तीक्ष्ण दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं. सूंड की तरह लंबी नाक आने वाली विपदाओं को दूर से सूंघकर सर्तक हो जाने को प्रेरित करती है. वे देवगणों के नायक कहे जाते हैं. उनकी स्थूल देह में निहित गुरुता इस बात का संदेश देती है कि नेतृत्वकर्ता का व्यक्तित्व गुरु-गंभीर होना चाहिए. इसीलिए भारतीय जनमानस उन्हें मंगलकारी देवता के रूप में पूजता है.

श्री गणेश बेहद सहज व लोकहितकारी देवता हैं जो मिट्टी की डली के रूप में स्थापित कर पूजा करने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं. शिव पुराण में गणेश जन्म का रोचक वृतांत मिलता है. एक बार माता पार्वती ने अपने उबटन के मैल से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण फूंककर उसे पुत्रभाव से प्रहरी की जिम्मेदारी देकर स्नान को चली गयीं. संयोग से शिव उधर आ निकले. अपरिचित बालक ने उन्हें अंदर जाने से रोका तो दोनों में युद्ध छिड़ गया और क्रोधित शिव ने अपने त्रिशूल से गणोश का मस्तक काट दिया. यह दृश्य देख माता पार्वती बेसुध हो गयीं व पूरे कैलाश में हाहाकार मच गया. तब पार्वती को प्रसन्न करने के लिए शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर गणेश के धड़ पर स्थापित कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया. तभी से वह बालक गजानन गणोश के रूप में लोकविख्यात हो गया.



तिलक ने दिया लोकउत्सव का रूप : यूं तो गणेश की पूजा भारतीय समाज में बहुत प्राचीन काल से होती आ रही है. महाराष्ट्र के सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य राजवंशों के साथ पेशवाओं ने भी गणेश पूजन की परम्परा को गति दी थी. पुणे में कस्बा गणपति की स्थापना की छत्रपति शिवाजी की मां जीजाबाई ने.

गौरतलब हो कि आजादी से पहले जो गणेशोत्सव मूलत: पारिवारिक व धार्मिक आयोजन होता था, लोकमान्य ने उसे लोकउत्सव बना दिया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव को जो नया स्वरूप दिया, उससे वे राष्ट्रीय एकता के नये प्रतीक बन गये. तिलक ने इस उत्सव को धार्मिक कर्मकांड तक सीमित न रखकर इसे आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर कर समाज को संगठित करने व आम आदमी के ज्ञानवर्धन का जरिया बना दिया था. कहते हैं कि इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी.

महाराष्ट्र में लोकमान्य की उस परंपरा का निर्वहन आज भी होता है. पूजा अर्चना के साथ-साथ इन समारोहों में लोकसंस्कृति पर आधारित नृत्य नाटिकाएं, रंगोली, चित्रकला प्रतियोगिता, हल्दी व मेंहदी उत्सव आदि सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं. बीते कुछ समय से विभिन्न थीम पर गणोशत्सवों का आयोजन किया जाने लगा है. मसलन बीते दिनों महाराष्ट्र, पुणे व नासिक में गणेश पूजा के मंच से कन्या भ्रूणहत्या, स्वच्छता, ग्लोबल वार्मिग व पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनजागरण की पहल एक सार्थक व सकारात्मक कदम कही जा सकती है. 

ऐसे शुरू हुई प्रतिमा विसर्जन की परंपरा : 1893 से पहले गणपति उत्सव सिर्फ घरों व मंदिरों तक सीमित था. तब प्रतिमा विसर्जन की परंपरा भी नहीं थी और न ही भव्य पूजा पंडाल बनते थे. कहते हैं कि तिलक ने जब सार्वजनिक गणsश पूजा की शुरुआत की तो छुआछूत की मानसिकता वाले पंडित पुरोहितों ने सार्वजनिक पूजन के बाद देव प्रतिमा के अशुद्ध हो जाने की बात कहकर उन्हें मंदिर में स्थापित करने का विरोध कर दिया, तभी से प्रतिमा विसर्जन की परंपरा पड़ गई.- पूनम नेगी

 

समयलाईव डेस्क


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