चिन्ता

Last Updated 09 Jun 2022 03:05:54 AM IST

जीवन एक लम्बा पथ है, जिसमें कितने ही प्रकार के झंझावात आते रहते हैं।


श्रीराम शर्मा आचार्य

हमने देखा है, और बराबर देखते रहते हैं कि कभी संसार की प्रतिकूल परिस्थितियां अवरोध खड़ा करती हैं तो कभी स्वयं की आकांक्षाएं। कहना न होगा कि ऐसे में सन्तुलित दृष्टि न हो तो भटकाव ही हाथ लगता है। असफलताएं हाथ लगती हैं, और असफलताओं के प्रस्तुत होते ही असन्तोष बढ़ता जाता है तथा मनुष्य अनावश्यक रूप से भी चिन्तित रहने लगता है। हालांकि असन्तोष बढ़ने की वजहों को ढूंढ़ें तो वे ढूंढ़े नहीं मिलतीं। सन्तुलन के अभाव में चिन्ता-आदत में शुमार होकर अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म देती है। अधिकांश कारण इनके निराधार ही होते हैं। चिन्ता किस प्रकार उत्पन्न होती है?

इस सम्बन्ध में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक मैकडूगल लिखते हैं कि ‘मनुष्य की इच्छाओं की आपूर्ति में जब अड़चनें आती हैं, तो उसका विश्वास, आशंका और निराशा में परिवर्तित होने लगता है, पर वह आई अड़चनों तथा विफलताओं से पूर्णत: निराश नहीं हो जाता, इसलिए उसकी विभिन्न प्रवृत्तियां अपनी पूर्ति और अभिव्यक्ति का प्रयास करती रहती हैं। सामाजिक परिस्थितियां तथा मर्यादाएं मनुष्य के लिए सबसे बड़ी अवरोध बनकर सामने आती हैं तथा इच्छाओं की पूर्ति में बाधक बनती हैं, जिससे उसके मन में आंतरिक संघर्ष के लिए मंच तैयार हो जाता है। इसी में से असन्तोष और चिन्ता का सूत्रपात होता है, अनावश्यक चिंता उत्पत्ति के अधिकांश कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं।’ एक सीमा तक चिंता की प्रवृत्ति भी उपयोगी है, पर जब वह मर्यादा की सीमा का उल्लंघन कर जाती है तो मानसिक संतुलन के लिए संकट पैदा करती है।

अवसाद पैदा कर देती है। व्यक्तिगत पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन से जुड़े कर्त्तव्यों के निर्वाह की चिन्ता हर व्यक्ति को होनी चाहिए। बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षण एवं विकास की, उन्हें आवश्यक सुविधाएं जुटाने की चिन्ता अभिभावक न करें, अपनी मस्ती में डूबे रहें, भविष्य की उपेक्षा करके वर्तमान में तैयारी न करें तो भला उनके उज्ज्वल भविष्य की आशा कैसे की जा सकती है। विद्यार्थी खेलकूद में ही समय गंवाता रहे-आने वाली परीक्षा की तैयारी न करे तो उसके भविष्य का अन्धकारमय होना निश्चित है।



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