परमार्थ

Last Updated 05 May 2022 02:24:45 AM IST

प्राचीन समय में जिन लोगों के कारण इस धरा पर सतयुगी परिस्थितियां बनी हुई थीं, उन्हें भूसुर अर्थात धरती का देवता कहा जाता था।


श्रीराम शर्मा आचार्य

ये भूसुर कहीं आसमान से नहीं टपकते थे बल्कि इसके पीछे इनके जीवन जीने की श्रेष्ठ शैली ही थी। उनकी श्रेष्ठता का मूल आधार हुआ करता था-परमार्थ। आखिर, परमार्थ है क्या? हमारी मोटी बुद्धि दान को ही परमार्थ मानती है। दान के रूप में दिया गया धन यदि कहीं कुपात्र के हाथ लगा, तो जाहिर है उसे वह दुर्व्यसनों में ही खर्च करेगा। आपत्ति में डूबे हुए लोगों की मदद करना तो अच्छी बात है, किंतु देने वालों को देखना यह भी चाहिए कि सस्ती वाहवाही के फेर में कहीं वे लेने वाले का स्वाभिमान और स्वावलंबन तो नहीं नष्ट कर रहे हैं। गांधी जी की बहन विधवा थीं। उनकी पुत्री भी विधवा हो गई। उन्होंने गांधी जी से कुछ सहायता चाही।

गांधी जी ने जवाब दिया कि तुम दोनों आश्रम में आ जाओ। अशिक्षित होने पर भी तुम आटा पीस सकती हो। ऐसा करते हुए अपनी मेहनत की कमाई से पेट भरना। भजन के नाम पर भी दान देने या लेने का कोई औचित्य नहीं। वस्तुत: व्यक्ति को गुजरात के बापा जलाराम की तरह भजन करना चाहिए। वे स्वयं खेती करते थे। उनकी पत्नी उस कमाई से भोजन बनाकर जरूरतमंदों का पेट भरा करती थी। जलाराम खेती करते समय और पत्नी रोटी बनाते समय मन ही मन भजन करते रहते थे। अनगिनत लोग ऐसे हैं, जिनके लिए अपने परिवार का निर्वाह भी कठिन होता है।

बचत करने का मौका ही नहीं आता, जिसे वह किसी को दान कर सकें। पुराने जमाने में साधु और ब्राह्मण जन ऐसा ही करते थे। अपरिग्रही होने के कारण उनके पास कुछ जमा तो हो नहीं पाता था, फिर भी उन्हें उच्च कोटि का परमार्थी और उदारमना माना जाता था। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि हमने तो अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा दान किया है, अब लेने वाला उसका चाहे कुछ भी करे। वह जैसा करेगा, वैसा भरेगा। किंतु वस्तुत: दान का मर्म यह नहीं है।

दान का मर्म हमें भली प्रकार हृदयंगम करना चाहिए और हमेशा सुपात्र ढूंढकर ही धन, समय, प्रतिभा या श्रम का दान करना चाहिए अन्यथा मानकर चलें कि हम समाज का बहुत अहित कर रहे हैं। लोगों को आलसी-प्रमादी और निठल्ला बना रहे हैं। सच्चे अथरे में सुपात्र को दिया गया दान ही पुण्य और परमार्थ है।



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