तटस्थता

Last Updated 02 May 2022 12:21:01 AM IST

जिस प्रकार आवश्यकता को आविष्कार की जननी कहा जाता है, उसी प्रकार दु:ख को सुख का जनक मान लिया जाए तो अनुचित न होगा।


श्रीराम शर्मा आचार्य

जिसके सम्मुख दु:ख आते हैं, वही सुख के लिए प्रयत्न करता है। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किंतु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जाएं कि आपकी अनुभूतियां  प्रसन्नतापरक परिस्थितियों की अभ्यस्त हो जाएं। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जाएगी और जरा-सा भी कारण उपस्थित होते ही आप अत्यधिक दु:खी होने लगेंगे। अस्तु दु:ख से बचने का उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाए। संतुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में उपयोगी सिद्ध होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब-तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिए।

इस प्रकार प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है, वह जल्दी सीखा जा सकता है। दु:ख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इसलिए भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दु:ख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो भ्रमवश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं, और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है। किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है, तो वह भी दु:ख का कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिजाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किंतु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में अत्यधिक दु:खी हुआ करता है।

अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण के दुख के लिए घंटों दु:खी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्त्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं, भावुक व्यक्ति उन्हें अपने जीवन का अंग बना लेता है, स्वभाव का व्यसन बना लेता है। यहां तक कि एक बार दु:खी व्यक्ति तो अपना दु:ख भूल सकता है किंतु भावुक व्यक्ति उसके दु:ख को अपना कर महीनों दु:खी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किंतु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दु:ख का कारण बन जाता है।



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