प्रेम
यह प्रश्न तो बहुत सीधा-सादा मालूम पड़ता है, लेकिन शायद इससे जटिल और कोई प्रश्न नहीं है।
आचार्य रजनीश ओशो |
और प्रश्न की जटिलता यह है कि इसका जो भी उत्तर होगा वह गलत होगा। इस प्रश्न का जो भी उत्तर होगा वह गलत होगा। ऐसा नहीं कि एक उत्तर गलत होगा और दूसरा सही हो जाएगा। इस प्रश्न के सभी उत्तर गलत होंगे। क्योंकि जीवन से बड़ी और कोई चीज नहीं है जो लक्ष्य हो सकें। जीवन खुद अपना लक्ष्य है। जीवन से बड़ी और कोई बात नहीं है, जिसके लिए जीवन साधन हो सके और जो साध्य हो सके और सारी चीजों के तो साध्य और साधन के संबंध हो सकते हैं।
जीवन का नहीं, जीवन से बड़ा और कुछ भी नहीं है। जीवन ही अपनी पूर्णता में परमात्मा है। जीवन ही, वह जो जीवंत ऊर्जा है हमारे भीतर। वह जो जीवन है पौधों में, पक्षियों में, आकाश में, तारों में, वह जो हम सबका जीवन है। वह सबका समग्रीभूत जीवन ही तो परमात्मा है। यह पूछना कि जीवन का क्या लक्ष्य है, यही पूछना है कि परमात्मा का क्या लक्ष्य है। यह बात वैसी ही है जैसे कोई पूछे प्रेम का क्या लक्ष्य है। जैसे कोई पूछे आनंद का क्या लक्ष्य है। आनंद का क्या लक्ष्य होगा, प्रेम का क्या लक्ष्य होगा, जीवन का क्या लक्ष्य होगा।
संसार में दो तरह की चीजें हैं। एक जो अपने आप में व्यर्थ होती हैं। उनकी सार्थकता इसमें होती है कि वे किसी सार्थक चीज तक पहुंचा दें। उन चीजों को साधन कहा जाता है। वे मीन्स होती हैं। एक बैलगाड़ी है उसका अपने में क्या लक्ष्य है। कुछ भी नहीं, लेकिन उसमें बैठकर कहीं पहुंच सकते हैं। अगर पहुंचना लक्ष्य में हो तो बैलगाड़ी साधन बन सकती है। एक तलवार का अपने-आप में क्या लक्ष्य है, लेकिन अगर लड़ना हो, लड़ना लक्ष्य हो तो तलवार साधन बन सकती है।
तो जीवन में एक तो वे चीजें हैं, जो साधन हैं, और कुछ करना हो तो उनके द्वारा किया जा सकता है और अगर न करना हो तो बिल्कुल बेकार हो जाते हैं। जीवन में ऐसी चीजें भी हैं, जो साधन नहीं हैं। वे स्वयं ही साध्य है, और उनका मूल्य इसमें नहीं है कि वह कहीं आपको पहुंचा दे। उनका मूल्य खुद उनके भीतर है, खुद उनमें ही छिपा है। प्रेम ऐसा ही अनुभव है। प्रेम अपने आप में ही अपनी उपलब्धि है। उसे पा लेने के पीछे कुछ और नहीं पा लेने को बचता और वह किसी और चीज का साधन भी नहीं है।
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