शांति और अशांति
मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। वे कहते हैं, शांत कैसे हों? मैं उनसे पूछता हूं कि पहले तुम मुझे बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जब तक यह पता न चल जाए कि तुम कैसे अशांत हुए, तो शांत कैसे हो सकोगे! एक आदमी मेरे पास लाया गया।
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
उसने कहा, मैं अरविंद आश्रम से आता हूं। शिवानंद के आश्रम गया हूं। महेश योगी के पास गया हूं। ऋषिकेश हो आया। यहां गया, वहां गया। रमण के आश्रम गया हूं। कहीं शांति नहीं मिलती। तो किसी ने आपका मुझे नाम दिया तो मैं आपके पास आया हूं। तो मैंने कहा, इसके पहले कि तुम निराश होकर लौट जाओ, तुम लौट जाओ पहले ही।
नहीं तो तुम और लोगों से भी जाकर कहोगे कि वहां भी गया और शांति नहीं मिली। तो तुम अभी ही लौट जाओ, इसके आगे बात करनी उचित नहीं है। उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैं तो बड़ी आशा से आया हूं। तो मैंने उस आदमी को कहा कि अशांति सीखने तुम किस आश्रम में गए थे? किस गुरु से अशांति सीखी?
अशांति तुम सीखोगे और शांति मैं न दे पाऊंगा तो अपराधी मैं हो जाऊंगा। मैंने उस आदमी से पूछा, तुम फिकर छोड़ो शांति की, तुम मुझे यह बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जो अशांत होने का ढंग है उसी में कुंजी छिपी है शांत होने की, और कहीं कोई शांति नहीं खोज सकता। अशांत होते हैं हम, जिंदगी के साथ जोर से चिपक जाते हैं इसलिए अशांत होते हैं।
जिंदगी को बहने नहीं देते, तिनके की तरह आड़े लड़ते हैं जिंदगी से, तो अशांत होते हैं। उस तिनके की तरह सीधे नहीं नदी में बह जाते। नहीं तो फिर अशांति का कोई कारण नहीं है। अशांत हम होते हैं, हमारा जीवन के प्रति जो ढंग है, उससे। वह जो हमारा वे ऑफ लिविंग है, उससे हम अशांत होते हैं और शांति हम खोजते हैं कि किसी मंत्र से मिल जाए, किसी माला से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि किसी के आशीर्वाद से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि परमात्मा की कृपा से मिल जाए। हम अशांत होने का पूरा इंतजाम करते चले जाते हैं और शांति खोजते रहते हैं।
तब यह शांति की खोज सिर्फ एक और नई अशांति बन जाती है। इसलिए साधारण आदमी साधारण रूप से अशांत होता है, धार्मिंक आदमी असाधारण रूप से अशांत हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, शांति भी चाहिए। और वह जो चाहिए था सब, वह तो चाहिए ही-वह धन भी चाहिए, वह यश भी चाहिए, वह पद भी चाहिए-वह सब तो चाहिए ही, शांति भी चाहिए।
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