आत्मिक परिष्कार

Last Updated 01 Oct 2020 04:20:27 AM IST

साधना से सिद्धि मिलती है, इसमें दो राय नहीं हैं। सिद्धि वस्तुत: अपने आपको, अपनी अंतरात्मा को सिद्ध करने का दूसरा नाम है।




श्रीराम शर्मा आचार्य

साधना हम अपनी इन्द्रियों, मन, बुद्धि और चित्त की करते हैं। इनके सध जाने पर अंत:करण परिष्कृत हो जाता है। ऐसा अंत:करण ही वह कल्पवृक्ष है, जिसकी छाया में बैठा व्यक्ति मनचाही मुरादें पूरी कराता रह सकता है। अस्तु, सिद्धियों का रहस्य अपनी आत्म-समीक्षा द्वारा आत्म परिष्कार का मार्ग बनाना है। मात्र कपोल कल्पनाओं का सहारा लेकर आत्म सुधार का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। सही ढंग से की गई आत्म समीक्षा में कोई कमी रह जाती है, तो उसे प्रयास करके प्राप्त किया जा सकता है।

कर्मकांडों के बल पर भौतिक जीवन में भी प्रगति बन पड़ती है। बिना कुछ किए तो भोजन भी मुंह में नहीं जाता पर लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना हो तो मात्र कर्मकांडों के ही बल पर लक्ष्य  प्राप्त करना संभव न होगा। आंतरिक परिष्कार करना ही पड़ेगा, अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादी मान्यताओं को समाविष्ट करना पड़ेगा। आत्म निरीक्षण करते समय सर्वप्रथम शरीर और आत्मा को एक दूसरे से सर्वथा भिन्न अनुभव करना चाहिए। इसके बिना माया और ब्रrा, स्थूल एवं चैतन्य के बीच का अंतर अनुभव कर पाना संभव नहीं है।

जब तक चेतना अपने को शरीर और उसकी शुभ चिंतक मानती रही है, तब तक जीव, माया-जाल में बंधा रहता है। आत्म तत्त्व का भी शरीर के समान विकास संभव हो सके, इसके लिए आषर्ग्रंथों से लेकर अनुभवी ऋषि-मुनियों ने जो मार्ग बताए हैं, उनमें प्रथम है तपचर्या अर्थात् अपनी नियमित जीवनचर्या में हो रही त्रुटियों का कठोरतापूर्वक दमन। अभ्यास में, आदत में आ गई दुष्प्रवृत्तियां आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं। इनके साथ कठोरता का व्यवहार करना पड़ता है। तपचर्या रूपी कठोरता का यह अभिप्राय कदापि न लगाया जाए कि शरीर को पीड़ा या कष्ट देना ही तपचर्या है। तपचर्या की कठोरता का अर्थ संकल्पपूर्वक सशक्त मनोबल का विकास करना है, जो दुष्प्रवृत्तियों से, अभ्यस्त कुपथगामी आदतों से मल्लयुद्ध करके उन्हें परास्त कर सके। इसे आत्मिक परिष्कार भी कहा जा सकता है।



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