नृशंसता का प्रतिरोध

Last Updated 14 Sep 2020 12:15:52 AM IST

राजनैतिक पराधीनता एवं विदेशियों द्वारा बरती गई नृशंसता के विरुद्ध पिछले दिनों हमारे मन में असंतोष उत्पन्न हुआ था तो उसका बाह्य स्वरूप स्वराज्य आन्दोलन के रूप में-स्वाधीनता संग्राम के रूप में-सामने आया था।


श्रीराम शर्मा आचार्य

जन-मानस का व्यापक असंतोष राजमुकुटों को तिनके के समान उड़ाकर फेंक सकता है। दुनिया का इतिहास साक्षी है कि बड़ी से बड़ी क्रूर सल्तनतें जन-असंतोष की आग में जलकर भस्म हो गई। जनता की मनोभूमि जब करवट बदलती है तो बड़ी-से-बड़ी विडम्बनाएं धराशायी हो जाती हैं। जिस हीन सामाजिक दुरवस्था में हम आज पड़े हैं; वह भी तभी तक टिकी रह सकती है जब तक जन-मानस में उसके प्रति उभार नहीं आता।

यह बुराइयां अभी अखरती तो हैं पर यदि कांटे की तरह उनकी चुभन हम अनुभव करने लगे तो फिर इन्हें उखाड़ फेंकने में कितनी देर लगेगी? सामाजिक असभ्यता हमारे लिए राजनीतिक गुलामी से अधिक त्रासदायक स्थिति में हमारे सामने मौजूद है। स्वाधीनता संग्राम के बलिदानी सेनानी स्वर्ग से हमें पूछते हैं कि हमारा कारवां एक ही मंजिल पर पड़ाव डालकर क्यों पड़ा रहा? आगे का पड़ाव सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन का था, अगला मोर्चा वहां जमना था-पर सैनिकों ने हथियार खोलकर क्यों रख दिये? युग की आत्मा इन प्रश्नों का उत्तर चाहती है।

हमें इसका उत्तर देना होगा। यदि हम सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन के लिए कुछ नहीं करना चाहते,कुछ नहीं कर सकते तो जहां भावी इतिहासकार जिस प्रकार स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों को श्रद्धा से मस्तक झुकाते रहेंगे वहां हमें धिक्कारने में भी कसर न रहने देंगे। आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति के लिए अग्रसर हुए हम धर्मप्रेमी ईश्वरभक्त लोगों के कंधों पर लौकिक कर्तव्यों की पूर्ति का भी एक बड़ा उत्तरदायित्व है।

ईश्वर को हम पूजें और उसकी प्रजा से प्रेम करे; भगवान का अर्चन करें और उसकी वाटिका को-दुनिया को-सुरम्य बनावें तभी हम उसके सच्चे भक्त कहला सकेंगे तभी उसका सच्चा प्रेम प्राप्त करने के अधिकारी हो सकेंगे। हमारे आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति का प्रथम सोपान सुव्यवस्थित जीवन है। स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन, सभ्य समाज उसके तीन आधार हैं। इन आधारों को संतुलित करने के लिए सबल और समर्थ बनाने के लिए हमें कुछ करना ही पड़ेगा, कटिबद्ध होना ही पड़ेगा।



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