बेकारी : श्रीराम शर्मा आचार्य

Last Updated 03 Sep 2020 12:57:36 AM IST

कहावत है ‘खाली दिमाग शैतान की दुकान’। यह कहावत उन सबके लिए है जो परिश्रम से जी चुराते हैं। परिश्रम के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा सा रहता है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

अब तो विज्ञान भी मानने लगा है कि परिश्रम से जी चुराने से ही नाना प्रकार की बीमारियां पनपती हैं।  परिश्रम चाहे व्यायाम का ही क्यों न हो, किन्तु करना अवश्य चाहिए।

जो बेकार रहेगा, उसे शैतानी सूझेगी। बेकारी की समस्या इसीलिए खतरनाक नहीं मानी जाती कि उन दिनों आदमी कमाता नहीं, वरन मुख्यतया इसलिए उसे भयंकर मानते हैं कि बेकार आदमी को उत्पात ही सूझेंगी। बुराई का आज चारों ओर बाहुल्य है। बेकार आदमी सहज ही उस ओर आकर्षित होते हैं। कार्य में व्यस्त व्यक्ति फुरसत न मिलने के कारण बुराइयों से बचा रहता है पर बेकार आदमी के लिए तो सर्वनाश का द्वार खुला पड़ा है। बेकारी का कारण सदा काम का अभाव नहीं है। बहुधा आलस्य भी होता है।

नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें खाते फिरने वालों में से अधिकांश वे होते हैं, जो ऊंची आमदनी की, आरामतलब की, बिना मेहनत की नौकरी चाहते हैं, श्रम में जिनका जी दुखता है, मेहनत-मजदूरी से जिन्हें अपनी शान और इज्जत घटती मालूम होती है। उनके लिए बाबूगीरी की नौकरियां मिलना मुश्किल हो सकती हैं पर परिश्रम करने वाले के लिए काम की कहीं कमी नहीं है। हर आदमी को हर जगह काम मिल सकता है। बहुत न सही, पर थोड़ा-सा तो वह कमा ही सकता है। थोड़ी भी कमाई न हो तो समय की बेकारी तो किसी काम में लगे रहने से बच ही जाती है।

खुराफात में मन दौड़ाने का अवसर नहीं मिलता, यह भी क्या कुछ कम लाभ है? पुरानी कहावत है कि ‘कुछ न कुछ किया कर, कुछ न हो तो पाजामा उधेड़ कर सिया कर’। वक्त बेकार बातों में गंवाने की अपेक्षा अच्छा है कि पाजामा उधेड़ने और सीने की कला का अभ्यास होता रहे ओर उस कार्य में हाथ सध जाए। कारीगरों की हर क्षेत्र में आवश्यकता है। देश में उद्योग-धंधे बढ़ रहे हैं। उनमें कुशल कारीगरों की भारी कमी रहती है। उनमें  आजीविका अच्छी मिलती है और स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। लोग मेहनतकश बनने को तैयार हों, तो उनकी शान-शेखी में ही थोड़ी कमी हो सकती है, पर लाभ उन्हें भी होगा और सारे समाज को भी।



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