एकान्त सेवन करो, श्रीराम शर्मा आचार्य, धर्म, धार्मिक लेख
मनुष्य वास्तव में अकेला है। अकेला ही आया है और अकेला ही जायगा। इच्छा करके वह अकेला बहुत हो जाता है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
एकोùहं बहुस्याम। एकान्त मय इसका जीवन है। जीवन में जो सुख दुख प्राप्त होते हैं वह अकेले को ही होते हैं कोई दूसरा उसमें भागीदार नहीं होता। जिस समय हम रोगी होते हैं किसी पीड़ा से व्यथित होते हैं क्या उस समय का कष्ट कोई बांट लेता है? कोई प्रेमी बिछुड़ गया है, किसी के द्वारा सताये जा रहे हैं, अपनी वस्तुएं नष्ट हो गई हैं, परिस्थितियों में उलझ गये हैं उस समय जो घोर मानसिक वेदना होती है, उसका अनुभव अपने को ही करना पड़ता है।
दूसरे लोगों की सहानुभूति और कभी-कभी सहायता भी मिल जाती है पर वह बाह्य उपचार मात्र है। किसी भौतिक अभाव का कष्ट हुआ और बाहर की मदद मिल गई तब तो दूसरी बात है अन्यथा उन दैवी विपत्तियों में जिनमें मनुष्य का कुछ वश नहीं चलता, मनुष्य को एकांत कष्ट ही भोगना पड़ता है।
सुख भी एकान्त ही मिलता है। मैं मिठाई खा रहा हूं, मैं ऐश्वर्य भोग रहा हूं, मैं सम्पत्तिशाली हूं, इसमें तुम्हारी क्या समझ? मैं विद्वान हूं इसका फल तुम्हें किस प्रकार मिल सकता है? परस्पर सहयोग और दान, त्याग दूसरी बात है। इससे धर्म के अनुसार किसी को भिक्षा दी जा सकती है किन्तु वास्तविक सुख उसी को होता है जिसके पास साधन एकत्रित हैं। मनुष्य का सारा धर्म कर्म एकान्त मय है। उसे अपनी परिस्थितियों पर स्वयं विचार करना पड़ता है अपने लाभ हानि का निर्णय स्वयं करना पड़ता है, अपने उत्थान पतन के साधन स्वयं उपलब्ध करने पड़ते हैं।
इस संघषर्मय दुनिया में जो अपने पांवों पर खड़ा होकर अपने बलबूते पर चलता है वह कुछ चल लेता है बढ़ जाता है और अपना स्थान प्राप्त करता है। किन्तु जो दूसरों के कन्धे पर अवलंबित है, दूसरों की सहायता पर आश्रित है, वह भिक्षुक की तरह कुछ प्राप्त कर लें तो सही अन्यथा निर्जीव पुतले या बुद्धि रहित कीड़े मकोड़ों की तरह ज्यों-त्यों करके अपनी सांसें पूरी करते हैं, मनुष्य के वास्तविक सुख- दु:ख, हानि- लाभ, उन्नति पतन, बन्ध, मोक्ष का जहां तक संबंध है वह सब एकान्त के साथ जुड़ा हुआ है। खेलने की वस्तुओं के साथ मोह बन्धन में बंधकर वह खुद खिलौना बन गया है। वस्त्रों और औजारों पर मोहित होकर उसने अपने की वही समझ लिया है परन्तु वास्तव में वह ऐसा है नहीं।
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