त्याग और प्रेम

Last Updated 16 Mar 2020 12:05:47 AM IST

एक दिन नारद जी भगवान के लोक को जा रहे थे। रास्ते में एक संतानहीन दुखी मनुष्य मिला।


श्रीराम शर्मा आचार्य

उसने कहा-‘नाराज जी मुझे आशीर्वाद दे दो तो मेरे संतान हो जाए’। नारद जी ने कहा-भगवान के पास जा रहा हूं। उनकी जैसी इच्छा होगी लौटते हुए बताऊंगा। नारद ने भगवान से उस संतानहीन व्यक्ति की बात पूछी तो उनने उत्तर दिया कि उसके पूर्व कर्म ऐसे हैं कि अभी सात जन्म उसके संतान नहीं होगी। नारद जी चुप हो गए। इतने में एक दूसरे महात्मा उधर से निकले, उस व्यक्ति ने उनसे भी प्रार्थना की। उनने आशीर्वाद दिया और दसवें महीने उसके पुत्र उत्पन्न हो गया।

एक दो साल बाद जब नारद जी उधर से लौटे तो उनने कहा-भगवान ने कहा है-तुम्हारे अभी सात जन्म संतान का योग नहीं है। इस पर वह व्यक्ति हंस पड़ा। उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारद जी के चरणों में डाला और कहा-एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है। नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वे झूठ बोले। मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा कर देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती। नारद कुपित होते हुए विष्णु लोक पहुंचे और कटु शब्दों में भगवान की र्भत्सना की। भगवान ने नारद को सांत्वना दी और इसका उत्तर कुछ दिन में देने का वायदा किया।

नारद वहीं ठहर गए। एक दिन भगवान ने कहा-नारद लक्ष्मी बीमार हैं-उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए। तुम जाकर मांग लाओ। नारद कटोरा लिए जगह-जगह घूमते फिरे पर किसी ने न दिया। अंत में उस महात्मा के पास पहुंचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरंत कलेजा निकाल कर दे किया। नारद ने उसे ले जाकर भगवान के सामने रख दिया। भगवान ने उत्तर दिया-नारद! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है।

जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूं। तुम्हारी अपेक्षा उसे श्रेय देने का भी क्या कारण है, सो तुम समझो। जब कलेजे की जरूरत पड़ी तब तुमसे यह न बन पड़ा कि अपना ही कलेजा निकाल कर दे देते। तुम दूसरों से मांगते फिरे और उसने बिना सोचे तुरंत अपना कलेजा दे दिया। ‘त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूं और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूं’। नारद चुपचाप सुनते रहे। उनका क्रोध शांत हो गया और लज्जा से सिर झुका लिया।



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