जीवन
आप का आखिरी कदम है तो धीरे मत चलिए। पूरा जोर लगा दीजिए। पहले और आखिरी कदम के बीच कोई अंतर मत रखिए।
![]() जग्गी वासुदेव |
आप ने शुरुआत में कोई अंतर रखा था तो कम से कम अब सीख लीजिए कि ऐसा नहीं करना है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप को अभी 100 कदम चलने हैं, या बस एक। आप एक ही तरह से चलिए, कोई अंतर मत रखिए। लोग कहते हैं, ‘अपने जीवन के, कम से कम अंतिम समय में आपको ईश्वर के बारे में सोचना चाहिए’। लेकिन, यदि आप सारा जीवन एक अंधे की तरह जीते हैं और अब सोचते हैं कि अंतिम क्षणों में राम-राम कहने से सब ठीक हो जाएगा, तो समझ लीजिए कि ऐसा नहीं होता।
आपने बीजू पटनायक के बारे में सुना है? ओडिशा के मुख्यमंत्री थे। मुख्यमंत्री रहते हुए, राजनैतिक प्रसिद्धि के बावजूद अपना जीवन अपने ही ढंग से जीते थे। जब मृत्यु शैया पर थे, तब लोग उनके लिए गीता ले आए और उनके सामने उसे पढ़ने की तैयारी करने लगे। तब बीजू ने कहा,‘ये सब बकवास बंद करो, मैंने अपना जीवन अच्छी तरह से जिया है’। एक बच्चा पूरी तरह से खेल में व्यस्त रहता है, आप उससे अंतिम सत्य के बारे में बात नहीं कर सकते। युवा पूरी तरह से हार्मोन्स के शिकंजे में होते हैं, उनसे भी आप ये बातें नहीं कर सकते।
बूढ़े लोग बस इस चिंता में लगे रहते हैं कि वे स्वर्ग में कहां होंगे? तो आप उनसे भी इस बारे में बात नहीं कर सकते। तो फिर आप को क्या करना चाहिए? संस्कृत का एक श्लोक है,‘बालास्तवत क्रीड़ासक्त:’ अर्थात बच्चे की तरह खेल में आसक्त रहो। जब आप बच्चे थे तब आपका खेलकूद आपको पूरी तरह व्यस्त रखता था, आपका खेलकूद हर समय चलता रहता था। आप जब युवा हुए तो वे सब खेलकूद आपको थोड़ा मूर्खतापूर्ण लगने लगे, आपको लगा कि अब आप थोड़े गंभीर और उद्देश्यपूर्ण हो गए हैं। उसके बाद क्या हुआ? आप की बुद्धिमत्ता को आपके हार्मोन्स ने जकड़ लिया।
फिर आप कुछ भी स्पष्ट रूप से दिखना बंद हो गया। फिर, धीरे-धीरे आप बूढ़े होने लगे। बूढ़े हमेशा चिंतित रहते हैं। बच्चा खेल में व्यस्त रहता है। युवा पूरी तरह से हार्मोन्स के शिकंजे में होते हैं। बूढ़े चिंता में रहते हैं कि स्वर्ग में कहां होंगे? आप उनसे भी इस बारे में बात नहीं कर सकते। फिर बताइए, यहां है कौन? कोई ऐसा, जो न बच्चा हो, न युवा, न वृद्ध-कोई ऐसा जो सिर्फ जीवन हो-सिर्फ उससे ही आप ये बात कर सकते हैं।
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