मां की महत्ता
जब वे कहते हैं, ‘माता, पिता, गुरु , दैवम’ तो वास्तव में उनका कहना ये है कि, ‘माता, पिता, गुरु और दिव्यता’।
![]() जग्गी वासुदेव |
मैं चाहता हूं कि आप इसे सही संदर्भ में समझें। जब आप का जन्म होता है तब आप के जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है? ईर तो बिलकुल ही नहीं! न ही गुरु , और न ही पिता!! ये मां होती है। उस समय, जब आपको स्तनपान की, गले लगाने और चूमे जाने की तथा पोषित किये जाने की आवश्यकता है, तब मां ही महत्त्वपूर्ण है।
मुझे नहीं लगता कि इसे कहने की भी कोई जरूरत है। यह एकदम स्पष्ट ही है। जीवन स्वयं यह कह रहा है कि नवजात शिशु के लिये मां सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। जब वे कहते हैं,‘माता, पिता, गुरु , दैवम’ तो वे बस जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया के बारे में ही एक वक्तव्य दे रहे हैं। जब बच्चा चलना शुरू करता है तो पिता महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पिता को बाहरी दुनिया की परिस्थितियों के बारे में जानकारी है, वहां उसकी पहुंच है। इसे आज के संदर्भ में मत देखिये, उन दिनों, पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी।
अगर बच्चे को दुनिया के बारे में, जीवन के कौशलों के बारे में तथा समाज में कैसे रहना है, इसके बारे में जानना हो तो उन दिनों पिता की भूमिका महत्वपूर्ण थी। जब ये सब हो जाता है तो एक उच्चतर संभावना को प्राप्त करने के लिये, गुरु आवश्यक है। अगर आप को एक उच्चतर संभावना के बारे में जिज्ञासा है, उसे पाने की ललक है और आप उसे पाने में सफल हो जाते हैं तो दिव्यता एक स्वाभाविक वास्तविकता हो जाती है। संस्कृत की आधी-अधूरी समझ होने के कारण लोग हर तरह के अर्थ निकालते रहते हैं। मां कहती है,‘ये उक्ति बताती है कि मां ही प्रथम है, तुम्हें पूर्ण रूप से मेरे प्रति ही समर्पित होना चाहिए’।
पिता कहता है,‘मैं दूसरे नंबर पर हूं, तुम्हें मेरे प्रति समर्पित होना चाहिए, गुरु और फिर परमात्मा की तरफ आगे मत बढ़ो, यह आवश्यक नहीं है’। अगर लोग इस तरह की बात करने की कोशिश कर रहे हैं तो ये दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि आप की मां सिर्फ मां नहीं है, पिता सिर्फ पिता नहीं हैं, वे भी उसी तरह के जीव हैं जैसे कि आप हैं। उनका भी विकास होना चाहिए। उनका विकास तो आप से पहले होना चाहिए था। अगर माता -पिता विकसित होना भूल गए और बच्चे उन्हें राह दिखा रहे हैं, तो ये बड़े सौभाग्य की बात है। माता-पिता को इसका सदुपयोग करना चाहिए।
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