मेरा अज्ञान
मेरे पास एक मकान है, जिसे मैंने खरीदा है और इधर-उधर से सुधारकर खूबसूरत शिष्ट व्यक्तियों के रहने योग्य बना लिया है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
पर क्या यह वास्तव में मेरा है? नहीं, कदापि नहीं। मेरे इसमें आने से पूर्व न जाने वह जमीन जिस पर यह खड़ा है, कितने व्यक्तियों के अधिकार में आकर निकली होगी?
मैं जब तक जिंदा हूं इसमें आश्रय भर लेता हूं, बस। कृषक का खेत उसका सर्वत्व है। पर मूर्ख यह नहीं सोचता कि भविष्य में न जाने कितने उसके मालिक बनेंगे। मेरे हाथ में एक रुपया आ जाता है। मैं भी कैसा मूर्ख हूं जो इसे अपना अपना कहकर घमंड में फूल उठता हूं। मेरे पास असंख्य पुस्तके हैं, घर की सैकड़ों छोटी-बड़ी वस्तुएं हैं, क्या ये सदा मेरी होकर रहने वाली हैं। मैं फिर भूलता हूं। क्षुद्र सांसारिक वस्तुओं के लोभ में इन्हें ‘अपना’ कहने की मूर्खता करता हूं। मैं बाल-बच्चों का पिता हूं।
पर क्या वास्तव में ये बच्चे हमारे हैं? क्या हम ही इनके सब कुछ हैं? नहीं, ये हमारे नहीं हैं। जिस प्रकार पक्षियों के बच्चे समर्थ हो जाने पर उड़ जाते हैं, लौटकर फिर मां-बाप के पास आकर नहीं रहते, उसी प्रकार ये मानव परिंदे न जाने कब, कहां, किस ओर, किस अभिलाषा से उड़ जाने वाले हैं।
फिर मैं इन्हें क्योंकर अपना कह सकता हूं? मैं अपने शरीर को ‘अपना’ ‘अपना’ कहता हूं। शीशे में शक्ल देख फूला नहीं समाता। अपने नेत्र, कपोल नासिका, मुखमुद्रा को सर्वश्रेष्ठ समझता हूं। अपने शरीर के प्रत्येक अवयव पर मुझे गर्व है। पर क्या वास्तव में यह शरीर मेरा है? नहीं। वह तो हाड़, मांस, रक्त, मज्जा, तंतु, वीर्य इत्यादि का पुतला मात्र है। क्या मैं उदर, मुख, पांव, सिर इत्यादि हूं? क्या रक्त हूं, मांस हूं? अस्थियों का पिंजर हूं? क्या ांस हूं,वाणी हूं? क्या हूं? वास्तव में इन वस्तुओं में से मेरा कुछ भी नहीं है।
इन सब सांसारिक पदाथरे से मेरा संबंध क्षणिक, अस्थायी और झूठा है। अज्ञान तिमिर में मुझे इन वस्तुओं से अपना साहचर्य प्रतीत होता है। मैं तो आत्मा हूं। इस शरीर रूपी पिंजरे में अल्पकाल के लिए आ बंधा हूं। ईश्वर का दिव्य अंश हूं। संसार से निर्लिप्त हूं। सांसारिक वस्तुओं से मेरा संबंध क्षणिक है। यदि मैं अल्प लोभ के वश स्वार्थ और तृष्णा में लिप्त होता हूं, तो यह मेरा अज्ञान है, मूढ़ता है।
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