एकता-समता

Last Updated 14 Oct 2019 04:51:54 AM IST

राष्ट्रीय एकता का वास्तविक तात्पर्य है-मानवीय एकता। मनुष्य की एक जाति है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

उसे किन्हीं कारणों से विखिण्डत नहीं होना चाहिए। भाषा, क्षेत्र, संप्रदाय, जाति, लिंग, धन, पद आदि के कारण किसी को विशिष्ट एवं किसी को निकृष्ट नहीं माना जाना चाहिए। सभी को समाज में उचित स्थान और सम्मान मिलना चाहिए। उपरोक्त कारणों में से किसी को भी यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि अपने को बड़प्पन के अहंकार से भरे और दूसरे को हेय समझे।

कई प्रान्तों में संप्रदाय विशेष के सदस्य होने के कारण अथवा पृथक भाषा-भाषी होने के कारण अपने वर्ग-वर्ण को पृथक मानने और राष्ट्रीय धारा से कटकर अपनी विशेष पहचान बनाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। इसे शांत करने के लिए वैसे ही प्रयत्न किए जाने चाहिए, जैसे अग्निकाण्ड आरम्भ होने पर उसके फैलने से पूर्व ही किए जाते हैं। समता और एकता के उद्यान उजाड़ डालने की छूट किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए। द्वेष को प्रेम से जीता जाता है। विग्रह को तर्क, तथ्य, प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विवेकपूर्वक शांत किया जाता है।

इसलिए दुर्भाव और विग्रहों के पनपते ही उनके शमन समाधान का प्रयत्न करना चाहिए। यह सामयिक उभार है, जो देश का बुरा चाहने वालों को दुरभिसंधि के कारण उठ खड़े हुए हैं। यह विषवेलि पानी न मिलने पर समयानुसार सूख जाएगी। पर कुछ व्याधियां ऐसी हैं, जो चिरकाल से चली आने के कारण प्रथा परिपाटी बन गई हैं और उनके कारण देश की क्षमता और एकता दुर्बल होती चली आई है। समय आ गया है कि उन भूलों को अब समय रहते सुधार लिया जाए। जब सभी मनुष्यों की संरचना, रक्त-मांस की बनावट एक जैसी है, तो उनमें से किसे ऊंचा, किसे नीचा कहा जा सकता है?

ऊंच-नीच तो सत्कर्म और कुकर्म के कारण बनते हैं। उसका जाति-वंश से कोई संबंध नहीं। धर्म एक है। संप्रदायों का प्रचलन तो समय और क्षेत्रों की आवश्यकता के अनुरूप हुआ है। उनमें से जो जिसे भावे, वह उसे अपनावे। खाने-पहनने संबंध विभिन्न रुचि को जब सहन किया जाता है, तो भिन्न देवताओं की पूजा, भिन्न परम्पराओं का अपनाया जाना किसी को क्यों बुरा लगना चाहिए?



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