ईश्वर विश्वास
चोट खाया हुआ सांप आक्रमणकारी पर ऐसी फूंफकार मारकर दौड़ता है कि उसके होश छूट जाते हैं।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
सांसारिक व्यथाओं से विक्षुब्ध मनुष्य की भी ऐसी ही स्थिति होती है। जब मनुष्य को पीड़ाएं चारों ओर से घेर लेती हैं, कोई सहारा नहीं सूझता तो वह निष्ठापूर्वक अपने परमेर को पुकारता है। हार खाए हुए मनुष्य की कातर पुकार से परमात्मा का आसन हिल जाता है। उन्हें सारी व्यवस्था छोड़कर भक्त की सेवा के लिए भागना पड़ता है। ऐसा समय आता है जब मनुष्य संसार को भूलकर कुछ क्षण के लिए ऐसे दिव्य लोक में पहुंचता है, जहां उसे असीम सहानुभूति और शात शांति मिलती है। अंत:करण की समस्त वासनाएं विलीन हो जाती हैं, इंद्रियों की चेष्टाएं शांत हो जाती हैं। हिरण्यकश्यप की हठधर्मिंता से दु:खी बालक प्रह्लाद ने उसे बार-बार पुकारा, उसका नारायण बार-बार उसकी मदद के लिए दौड़ा। मनुष्य बुलाए और वह न आए ऐसा कभी हुआ नहीं।
द्रौपदी जान गई थी कि सभा में उसे बचाने वाला कोई नहीं है। दु:शासन चीर खींचता है। लाज न चली जाए, इस भय से निर्बल नारी दीनानाथ को पुकारती है। भगवान श्रीकृष्ण आते हैं और उसका चीर को बढ़ाते हुए चले जाते हैं। देवासुर संग्राम की कथाओं में ऐसे अनेक वर्णन हैं। बहुत से लोग हैं, जो ईश्वर और उसके अस्तित्व को मानने से इनकार करते हैं, पर यदि भली भांति देखा जाए तो मूढ़ताग्रस्त व्यक्ति ही ऐसा कर सकते हैं। एक बहुत बड़ा आश्चर्य हमारे सामने बिखरा पड़ा है। उसे देखकर भी जिसका विवेक जाग्रत न हो, कौतूहल पैदा न हो, उसे और कहा भी क्या जाएगा? पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है, यह दृश्य आप किसी अन्य ग्रह में बैठे देख रहे होते, तो समझते मनुष्य का अभिमान कितना छोटा है।
विशाल ब्रrाण्ड की तुलना में वह चींटी से भी हजार गुना छोटा लगेगा। अनंत आकाश और उस पर निरंतर होती रहती ग्रह-नक्षत्रों की हलचल, सूर्य, चन्द्रमा, सागर, पर्वत, नदियां, वृक्ष, वनस्पति, मनुष्य आदि के स्वयं के बदलते हुए क्षण क्या यह सब मनुष्य का विवेक जाग्रत करने के लिए काफी नहीं है? परमात्मा का अस्तित्व मानने के लिए क्या इतने से संतोष नहीं होता? विचारवान व्यक्ति कभी ऐसा नहीं सोचेगा। आदिकाल से लेकर अब तक जितने भी संत, महापुरुष हुए हैं और जिन्होंने भी आत्म कल्याण या लोक कल्याण की दिशा में कदम उठाया है, उन सबने परमात्मा-ईश्वर का आश्रय मुख्य रूप से लिया है।
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