प्रकृति : श्रीराम शर्मा आचार्य

Last Updated 25 Jul 2019 02:33:44 AM IST

वनों में कुछ ऐसे वृक्ष होते हैं, जो अपनी सीमा में छोटे-छोटे पौधों को पनपने नहीं देते हैं, सारे जंगल में दो-चार ऐसे हिंसक जंतु भी होते हैं, जो छोटे-छोटे जीव-जंतुओं को खा डालते हैं अफ्रीका के कुछ पौधे ऐसे धोखेबाज होते हैं कि उनमें कोई चिड़िया आश्रय के लिए आई और उन्होंने अपने नुकीले पत्तों से उसे जकड़कर उसका खून पी लिया।


श्रीराम शर्मा आचार्य

समुद्र में एक-दो मछलियां, एक-दो जंतु जैसे मगर और घड़ियाल ऐसे भी होते हैं, जो किसी का पनपना देख नहीं सकते, अपने से कम शक्ति का जो भी दांव में आ गया, उसी को चट कर लिया।

विविधा-विपुला प्रकृति में ऐसे दुष्ट प्रकृति के जीव-जंतु हैं तो पर उनकी संख्या उनका औसत थोड़ा है पर मनुष्य जाति के दृष्टि-दोष को क्या कहा जाए, जिसने इन दो चार उदाहरणों को लेकर ‘उपयोगितावाद’ जैसा मूर्खतापूर्ण सिद्धांत ही तैयार कर दिया। ढूंढे तो अधिकांश संसार ‘आओ हम सब मिलकर जिएं’ के सिद्धांत पर फल-फूल रहा है। यदि छोटों को मारकर खा जाने वाली बात ही सत्य रही होती तो कुछ ही शताब्दियों में विश्व की आबादी दो गुनी से भी अधिक न हो गई होती।

प्रस्तुत प्रसंग यह बताता है कि संसार के बुद्धिमान न समझे जाने वाले जीव-जंतु भी परस्पर मिलकर रहना कल्याणकारक मानते हैं। जंगल की नदियों में रोडियश नामक एक मछली पाई जाती है, साथ ही ‘सीप’ नामक एक जीव भी पाया जाता है। सीप के शरीर को कछुये की सी तरह का मोटा और कड़ा आवरण घेरकर रखता है, जिससे वह अपने अण्डों की सेवा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में रोडियश मछली और सीप दोनों मिलते हैं और ‘आओ हम-आप दोनों मिलकर जिएं’ के अनुसार समझौता कर लेते हैं।

रोडियश अपने अण्डे सीप के खोल में प्रविष्ट कर देती है, इसी समय सीप अण्डे देती है, वह रोडियश उसे अपने शरीर से चिपका लेती है। रोडियश घूम-घूमकर अपने लिए भोजन इकट्ठा करती है, उसी के दाने- चारे पर सीप के बच्चे पल जाते हैं, जबकि उसके अपने बच्चों को सीप पाल देती है। विभिन्न जातियों में सहयोग और संगठन की आचार संहिता से लगता है, भारतीय समाज शास्त्रियों ने प्रकृति की इस मूक भाषा को पढ़कर ही तैयार किया था। इस सिद्धांत के आधार पर ही संसार सुखी रह सकता है।



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