शु्द्धभक्त
भक्तियोग में भक्त कृष्ण के अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं करता. शुद्धभक्त न तो स्वर्गलोग जाना चाहता है और न ब्रह्मज्योति से तादात्म्य या मोक्ष या भवबंधन से मुक्ति ही चाहता है.
![]() स्वामी प्रभुपाद |
शुद्धभक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता. चैतन्यचरितामृत में शुद्धभक्त को निष्काम कहा गया है. उसे ही पूर्ण शांति का लाभ होता है. उन्हें नहीं जो स्वाथ्र्थ में लगे रहते हैं.
एक ओर जहां ज्ञानयोगी, कर्मयोगी या हठयोगी का अपना-अपना स्वार्थ रहता है वहीं पूर्णभक्त में भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं होती. अत: भगवान कहते हैं कि जो एकनिष्ठ भाव से उनकी भक्त में लगा रहता है उसे वे सरलता से प्राप्त होते हैं.
शुद्धभक्त सदैव कृष्ण के विभिन्न रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है. कृष्ण के अनेक स्वांश और अवतार हैं. यथा राम तथा नृसिंह. जिनमें से भक्त किसी एक रूप को चुनकर उसकी प्रेमाभक्ति में मन को स्थिर कर सकता है.
ऐसे भक्त को उन अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता जो अन्य योग के अभ्यासकर्ताओं को झेलनी पड़ती है. भक्तियोग अत्यंत सरल शुद्ध और सुगम है. इसका शुभारंभ हरेकृष्ण जप से किया जा सकता है. भगवान सब पर कृपालु हैं किंतु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो अननय भाव से उनकी सेवा करते हैं, वे उनके ऊपर विशेष कृपालु रहते हैं.
भगवान ऐसे भक्तों की सहायता अनेक प्रकार से करते हैं. जैसा कि वेदों (कठोपनिषद) में कहा गया है- येमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम अर्थात जिसने पूरी तह से भगवान की शरण ले ली है और जो उनकी भक्ति में लगा हुआ है, वही भगवान को यथारूप में समझ सकता है.
गीता में भी कहा गया है- ददामि बुद्धियोगं तम. ऐसे भक्त को भगवान पर्याप्त बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह उन्हें भगवद्धाम में प्राप्त कर सकें. शुद्धभक्त का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह देश और काल का विचार किये बिना अनन्य भाव से कृष्ण का ही चिंतन करता रहता है. उसे कहीं भी और किसी भी समय अपना सेवा कार्य करते रहने में समर्थ होना चाहिए.
कुछ लोगों का कहना है कि भक्तों को वृंदावन जैसे पवित्र स्थानों में या किसी पवित्र नगर में-जहां भगवान रह चुके हैं, रहना चाहिए किंतु शुद्धभक्त कहीं भी रहकर अपनी भक्ति से वृंदावन जैसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है. श्री अद्वैत ने चैतन्य महाप्रभु से कहा था-आप जहां भी हैं हे प्रभु! वहीं वृंदावन है.
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