शरीर
आप हमेशा इस कोशिश में लगे रहते हैं कि कैसे अपने आपको ज्यादा से ज्यादा सुरक्षित रखा जाए. आपके इर्द-गिर्द अगर चार-पांच लोग हैं, आपको अच्छा महसूस होता है.
![]() जग्गी वासुदेव |
जरा देर के लिए अकेले बैठना पड़ जाए तो आपको दिक्कत होने लगती है. यह आपके मन का स्वभाव नहीं है, यह आपके शरीर का स्वभाव है जो लंबा समय गुजरने के बाद एक मानसिक प्रक्रिया में बदल चुका है. दरअसल, यह खुद को बचाए रखने की प्रकृति ही है, क्योंकि शरीर को बचाना जरूरी है.
अगर आप मनमाने ढंग से इस शरीर का इस्तेमाल करेंगे तो यह टूट जाएगा. एक भी बेवकूफी से भरा काम आपने किया तो यह टूट जाएगा. तो इसी वजह से हम ये सब चीजें बनाने की कोशिश करते रहे हैं. लेकिन शरीर के साथ हमारा यह जरूरत से ज्यादा लगाव इसलिए है, क्योंकि हमने अपने शरीर के साथ ही अपनी पहचान स्थापित कर रखी है.
एक बार अगर किसी चीज के साथ आपने अपनी पहचान स्थापित कर ली तो आपका मन हमेशा उसी चीज के इर्द गिर्द काम करता रहेगा क्योंकि मन की प्रकृति ही कुछ ऐसी है. कल को एक और व्यक्ति आपके जीवन में आ जाता है, अब आप एक दूसरे शरीर के साथ पहचान स्थापित कर लेते हैं. शारीरिक संबंध इसीलिए होते हैं. जब मैं शारीरिक संबंध कहता हूं तो मेरा मतलब केवल आपके जीवन साथी से नहीं है.
मेरा मतलब जीवन साथी के साथ ही सभी अन्य बायोलॉजिकल संबंधों से भी है अर्थात आपके संबंध अपने माता-पिता से हो सकते हैं, बच्चों से हो सकते हैं. वो सारे रिश्ते जिसे आप खून का रिश्ता कहते हैं, उनसे आपका संबंध एक तरह से शारीरिक संबंध ही है. ये संबंध बहुत मजबूत और उलझाने तथा फंसाने वाले इसलिए बन जाते हैं, क्योंकि ये संबंध बायोलॉजिकल होते हैं, और जो सूचनाएं आपके शरीर के डीएनए में दर्ज हैं, वे कई और शरीरों में भी दर्ज हैं.
अगर आप इन सबके साथ अपने अंतर में कहीं गहराई में, जरूरत से ज्यादा जुड़ाव पैदा कर लेंगे तो कहीं न कहीं आप केवल उन्हीं लोगों से, जिनसे आपके रक्त-संबंध हैं, जुड़ पाएंगे. किसी दूसरे जीवन पर आप उचित ध्यान नहीं दे पाएंगे. यह बहुत सारे लोगों का और हमारे देश का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है. धृतराष्ट्र के समय से लेकर आज तक हम इस सिंड्रोम से पीड़ित हैं.
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