महानता

Last Updated 28 Sep 2017 05:12:58 AM IST

मानवीय विकास का वास्तविक स्वरूप निर्धारित करना हो, तो यह मानकर नहीं चला जा सकता कि मनुष्य शरीर पाने तक ही उसकी अंतिम परिधि है.


श्रीराम शर्मा आचार्य

उसे विकासोन्मुख होने के लिए शरीरगत जीवन यापन को भी सब कुछ न मानकर अपनी सत्ता चेतना के साथ जोड़नी पड़ेगी, जो इस ब्रह्मांड पर अनुशासन करती और अंतराल को सुविकसित, स्वच्छ बना लेने वालों पर अपनी उच्च स्तरीय अनुकंपा बरसाती है.

साथ ही मनुष्य को इस प्रकार का चिंतन अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करती है कि उसके अंतराल में अति महत्त्वपूर्ण क्षमताओं का भी भंडार भरा पड़ा है, जिसे थोड़ा विकसित कर लेने पर वह काया की दृष्टि से यथावत रहते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से महानतम बन सकता है.

इस अध्यात्म विकास के तत्वज्ञान के अनुरूप चेतना को विकसित, परिष्कृत, समर्थ, विलक्षण बनाने का द्वार मनुष्य शरीर मिलने के उपरांत खुलता है. इससे पूर्व तो वह मात्र जीवधारी ही बनकर रहता है. साथ ही प्रकृति का अनुशासन मानने के लिए बाधित रहता है. उसे प्रकृति पर अनुशासन करने, उसे अपने अनुकूल बनाने की विद्या का ज्ञान तक नहीं होता.

प्रकृति पर परमात्मा का स्वामित्व है. दूसरा हस्तांतरण उसके युवराज मनुष्य को उसकी परिपता विकसित होते ही उपलब्ध होने लगता है. यह दूसरी बात है कि वह उस अनुदान का कितनी बुद्धिमत्ता के साथ किन प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करता है.

विकास की मानवीय परत में उभरते ही उसे आत्मबोध की एक नई उपलब्धि हस्तगत होती है वह अनुभव करता है कि काय-कलेवर उसका समग्र स्वरूप नहीं वरन एक वाहन उपकरण आच्छादन मात्र है. उसके भीतर रहने वाली चेतना ही मनुष्य को ऊंचा उठाती, नीचे गिराती है. मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदाता है. मनुष्य अपने भाग्य निर्माता आप है. वह प्रकृति की कठपुतली मात्र नहीं है. अन्य प्राणियों की तरह मात्र निर्वाह ही उसकी एक मात्र आवश्यकता नहीं है.

वरन व्यक्तित्व का स्तर उठाकर जीवन सज्जा को, अनेक उपलब्धियों-विभूतियों से अलंकृत करना भी एक विशिष्ट उद्देश्य है. जब तक यह विचारणा नहीं उठती, तब तक वस्तुत: मनुष्य नर-पशु ही रहता है और  इंद्रिय लिप्ताओं और मानसिक तृष्णाओं तक ही उसकी गतिविधियां सीमित रहती हैं, न वह जीवन का महत्त्व समझ पाता है और न उसे चेतना की पृथकता, विशिष्टता संबंधी कुछ ज्ञान होता है.



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