भिक्षुक
भारत में भिक्षा मांगना आध्यात्मिक परंपरा का एक हिस्सा था. आप खुद अपना भोजन नहीं चुनते थे.
जग्गी वासुदेव |
लोगों से भिक्षा में जो कुछ मिलता था, उसे ही खाते थे. आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाला इंसान अगर आपके घर के सामने खड़े होकर भोजन मांगता था और आप उसे भोजन देते थे, तो यह दोनों के लिए सौभाग्य की बात समझी जाती थी. आजकल इन परंपराओं का दुरुपयोग हो रहा है और आम भिखारी आध्यात्मिक व्यक्ति का चोगा पहनकर पैसा और भोजन मांगते हैं. जब लोग पूरी चेतनता में भिक्षा मांगते थे, तो उसका बिल्कुल अलग अर्थ और संभावनाएं होती थीं. जब कोई आपके सामने हाथ फैलाता है और आपको लगता है कि उसका दुरुपयोग हो रहा है, तो आप भिक्षा देने से इनकार करके आगे बढ़ सकते हैं.
अगर आपको लगता है कि उसके पीछे वास्तव में कोई जरूरत है, तो आपको अपनी इंसानियत दिखानी चाहिए. सिर्फ यह सोच कर देखिए कि सड़क पर किसी के सामने हाथ फैलाना आपके लिए कितना मुश्किल होगा. वह व्यक्ति उसी स्थिति से गुजर रहा है. एक भिक्षुक की असहाय अवस्था उसे ऐसा करने पर मजबूर कर सकती है, मगर एक संन्यासी अपने विकास के लिए पूरी चेतना में ऐसा करता है ताकि वह अपने आप से कुछ ज्यादा ही न भर जाए. भिखारी के ऐसे महान लक्ष्य नहीं होते. वह बस अपना पेट भरने की कोशिश करता है, जो वह अपने दम पर करने में असमर्थ है. सिर्फ एक हाथ या एक पैर खोना असमर्थता नहीं है.
जीवन के बारे में आप जिस तरह सोचते और महसूस करते हैं, उसकी वजह से भी आप असमर्थ हो सकते हैं. वास्तव में पूरी मानव जाति जीवन के बारे में अपने विचारों और भावनाओं में किसी न किसी रूप में क्षमता से ग्रस्त है.
इसी तरह, भिक्षुक भी खुद को एक कोने में कर लेता है और भीख मांगना उसे रोटी कमाने का सबसे आसान तरीका लगता है. लेकिन एक आध्यात्मिक व्यक्ति भिक्षा इसलिए मांगता है क्योंकि वह खुद को अहं से मुक्त करना चाहता है. अपने आपको त्यागने के लिए एक उपकरण के तौर पर भिक्षा मांगी जाती थी क्योंकि रोजी-रोटी कमाने में आप खुद को इकट्ठा करते हैं. मगर किसी के सामने हाथ फैलाने में आप खुद को त्याग देते हैं. आप जानते हैं और पूरी तरह जागरूक होते हैं कि आपके अंदर अपनी जीविका कमाने की क्षमता है, मगर फिर भी आप भिक्षा मांगते हैं. यह एक इंसान के अंदर जबर्दस्त बदलाव लाता है.
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