सच्चा धर्म
अध्यात्म के मार्ग पर तीन कारक हैं, बुद्ध- सदगुरु या ब्रह्मज्ञानी का सान्निध्य, संघ-संप्रदाय या समूह और धर्म-तुम्हारा सच्चा स्वभाव.
श्री श्री रविशंकर |
जब इन तीनों का संतुलन होता है, तब जीवन स्वाभाविक रूप से खिल उठता है. बुद्ध या सतगुरु एक प्रवेश द्वार की तरह है. मानो तुम बाहर रास्ते पर तपती धूप में हो या तूफानी बारिश में फंस गए हो, तब तुम्हें शरण या द्वार की आवश्यकता महसूस होगी. एक बार तुम द्वार पर पहुंच कर प्रवेश कर जाते हो, तब संसार अधिक सुंदर लगने लगता है.
यह ऐसा स्थान है जो प्रेम, आनंद, सहयोग, करु णा और सब सदगुणों से भरा हुआ है. दूसरा तत्व है-संघ या समूह. यदि तुम सोचते हो कि समूह बहुत अच्छा है, या बहुत बुरा है तो इसका अर्थ है कि तुम पूरी तरह से समूह के साथ नहीं हो. अगर तुम पूरी तरह समूह के साथ हो तो कोई न कोई कलह जरूर पाओगे. संघ का स्वभाव बुद्ध से बिल्कुल उल्टा है.
बुद्ध मन को केंद्रित करते हैं. संघ में, क्योंकि ज्यादा लोग हैं; मन बिखर जाता है, टुकड़ों में बंट जाता है. जैसे ही तुम इसके आदि हो जाते हो, इसका आकषर्ण समाप्त हो जाता है. प्राय: तुम बुद्ध के लिए राग रखते हो और संघ के प्रति द्वेष और फिर उसे बदलना चाहते हो, लेकिन बुद्ध या संघ को बदलने से तुम बदलने वाले नहीं हो. मुख्य उद्देश्य है तुम्हारे अन्तरम गहराई के केंद्र तक पहुंचना, जिसका अर्थ है अपने धर्म को पाना. यह तीसरा कारक है. धर्म क्या है? धर्म मध्य में रहने को कहते हैं. अतिवाद की ओर नहीं जाना ही तुम्हारा स्वभाव है.
तुम्हारा स्वभाव है मध्य में, संतुलन में रहना, दिल की गहराइयों से मुस्कुराना, पूरे अस्तित्व को जैसा है वैसा ही पूर्ण रूप से स्वीकार करना. यह क्षण जैसा भी मेरे सामने रखा गया है, मैं वैसा ही उसे स्वीकारता हूं. जब यह समझ आता है तब कोई समस्या नहीं रहती. सभी समस्याएं मन की ही उपज हैं, सभी नकारात्मकता हमारे मन के अंदर से ही आती है.
संसार बुरा नहीं है, हम उसे सुंदर या कुरूप बनाते हैं. मानव मन की मुश्किल ही यही है कि पूरी तरह से वि का हिस्सा नहीं बन पाता. न ही दिव्यता का हिस्सा बन पाता. दिव्यता से दूरी महसूस करता है. धर्म वो है जो तुम्हें बीच में रखता है संसार के साथ सुगमतापूर्वक निभाना सिखाता है. संसार में अपना योगदान भी दिलवाता है, दिव्यता के साथ आराम से रह कर तुम्हें उस दिव्यता का हिस्सा होने का एहसास दिलाता है. वही सच्चा धर्म है.
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