गंगा दशहरा के दिन हुआ था मां गंगा का धरती पर आगमन
शास्त्रकारों ने मनुष्य को यथासंभव इन पापों से बचने की शिक्षा दी है किंतु अज्ञानवश यदि पाप हो जाएं तो गंगा स्नान कर प्रायश्चित का विधान बताते हुए कहा है कि गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान व दान देना चाहिए।
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गंगा पूजन के साथ उनके महावेग को अपनी जटाओं में धारण करने वाले देवाधिदेव शिव व गंगा को भूतल पर लाने वाले घोर तपस्वी राजा भगीरथ का पूजन भी पुण्यदायी माना गया है।
गंगंगावतरण की कथा ये है कि एक बार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। यज्ञ के अश्व की रक्षा के लिए उनके साठ हजार पुत्र उसके पीछे-पीछे चले। इंद्र ने ईर्ष्यावश यज्ञ के अश्व को पकड़वाकर कपिल मुनि के आश्रम में बंधवा दिया।
सगर के पुत्र अश्व को सब जगह खोजते हुए जब अंत में कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे तो वहां घोड़े को देखकर क्रोधित होकर उनको बुरा-भला कहने लगे। कपिल मुनि को इंद्र के षड्यंत्र का पता न था। इसलिए उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देकर राजकुमारों को भस्म कर दिया। कई दिन बीतने पर जब राजकुमार लौटकर नहीं आये तो राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को पता लगाने के लिए भेजा। उत्साही और कुशल अंशुमान ने घोड़े का पता लगाया और अपने परिजनों की दुर्दशा भी देखी।
उसे यह भी ज्ञात हुआ कि भस्म हुए राजकुमारों का उद्धार तभी संभव है, जब स्वर्ग लोक से गंगाजी पृथ्वी पर आएं और उनका इन सबकी भस्म से स्पर्श कराया जाये। तब भगवान श्रीहरि के वाहन गरुड़जी के परामर्श पर अंशुमान ने सर्वप्रथम अश्वमेघ का अश्व ले जाकर यज्ञ पूरा कराया और फिर अपने पितामह को पितरों की मुक्ति का मार्ग सुझाया। राजा ने वैसा ही किया, पर स्वर्ग से गंगाजी को लाना आसान न था।
राजा सगर और अंशुमान ने कड़ी तपस्या की, किंतु सफल नहीं हुए। उसके बाद अंशुमान के पुत्र दिलीप गद्दी पर बैठे पर उनका प्रयास भी सफल न हो सका। अंत में राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ राजा हुए। अपने पितरों का उद्धार करने की इच्छा से वे मंत्रियों को राज्य भार सौंपकर गंगाजी को लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर तप करने लगे। उनके कठोर तप ने देवताओं तक को विचलित कर दिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी उनके पास गये और उनसे वरदान मांगने को कहा।
भगीरथ ने उनसे गंगा को पृथ्वी पर भेजने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि गंगाजी की वेगवती धारा को भूतल पर संभालने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करना होगा। राजा भगीरथ पुन: महादेव को प्रसन्न करने में जुट गये। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की वेगवती धारा को संभालने का दायित्व खुद पर ले लिया।
शंकरजी ने अपनी जटाओं में गंगा को रोका और बाद में एक जटा के अग्रभाग से गंगाजल की बूंद कैलाश के पास बिन्दु सरोवर में गिरा दी।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार बिन्दु सरोवर से गंगाजी की सात धाराएं निकलीं। इनमें तीन धाराएं हादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व दिशा में, सुचक्षु, सीता और सिन्धु-ये तीन धाराएं पश्चिम की ओर निकल पड़ी तथा सातवीं धारा राजा भगीरथ के पीछे -पीछे उनके पूर्वजों के उद्धार के लिए चल पड़ीं। मार्ग में राजार्षि जहनु का तपोवन था, जहां वे तप में लीन थे।
‘देवनदी गंगा' की धरती पर उत्पत्ति जिस दिन हुई उस दिन दस दिव्य योग एक साथ थे। वह दिन आज यानी गंगा दशहरा का दिन है।
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