फिल्म रिव्यू: आपातकाल को सजीव नहीं कर पायी 'इंदु सरकार'
21 महीने के आपातकाल को सजीव कर पाने में मधुर भंडारकर की 'इंदु सरकार' चूक गयी है. अब तक के फिल्म ट्रेलर फिल्म को इंदिरा गांधी पर आधारित होने का सिर्फ भ्रम पैदा कर रहे थे.
फिल्म रिव्यू: आपातकाल को सजीव नहीं कर पायी 'इंदु सरकार' |
फिल्म का नाम : इंदु सरकार
डायरेक्टर: मधुर भंडारकर
स्टार कास्ट: कीर्ति कुल्हारी, नील नितिन मुकेश , तोता रॉय चौधरी, अमुपम खेर, और सुप्रिया विनोद
अवधि: 2:19 मिनट
सर्टिफिकेट: U /A
रेटिंग: 3 स्टार
आखिरकार लोगों के इंतजार को विराम लगाते हुए इस साल की सबसे विवादित फिल्म 'इंदु सरकार' पर्दे पर आ गयी है. मधुर भंडारकर और कन्ट्रोवर्सी का चोली-दामन का साथ है. उसी परंपरा का निर्वाह मधुर की इस फिल्म ने भलीभांति किया है. 'इंदु सरकार' रिलीज से पहले ही लगातार विवादों में रही है. चाहे वो फिल्म का नाम हो या फिल्म की पृष्ठभूमि सभी चर्चाएं गर्म रही हैं. सामाजिक मुद्दों को सिनेमा में उतारने के लिए जाने जाने वाले डायरेक्टर मधुर भंडारकर इस बार इमरजेंसी के दौर के मुद्दे को लेकर आये हैं. उन्होंने 1975 से 1977 के बीच भारत में लागू 21 महीने की इमरजेंसी की पृष्ठिभूमि को समेटने की कोशिश की है.
इस फिल्म की बात करें तो मधुर पेज 3, चांदनी बार, फैशन जैसा जलवा तो पर्दे पर नहीं उकेर पाए हैं लेकिन इस बार उन्होंने 2015 में आयी कैलेंडर गर्ल्स और हिरोईन की तरह दर्शकों की निराश भी नहीं किया है. आपको बता दें कि 2015 के बाद लगभग डेढ़ साल के अंतराल के बाद मधुर भंडारकर अपनी इस फिल्म को लाये हैं.
कहानी– फिल्म की कहानी 70 के दशक के इमरजेंसी के दौर को दर्शाती है. कहानी आपातकाल के दौरान नसबंदी के मुद्दे को उठाते हुए 27 जून 1975 के मुबिपुरा गांव से शुरू होती है जहां आपातकाल के दौरान पुलिस लोगों की नसबंदी करने के लिए धावा बोल देती है. लोग नसबंदी से बचने के लिए छुपते-बचते दिखाई दे रहे हैं लेकिन पुलिस किसी को नहीं छोड़ती. इसके बाद कहानी इंदू सरकार यानि अपने अहम किरदार की ओर मुड़ जाती है.
इंदु (कीर्ति कुल्हारी) एक अनाथ लड़की है बचपन से उसे हकलाने की बीमारी है लेकिन वो अपनी इस समस्या से निबटने का हर संभव प्रयास करने में जुटी है, उसे कविताएं लिखने का शौक है. इसी के साथ वो बड़ी होती है आखिरकार किस्मत उसे नवीन सरकार (तोता रॉय चौधरी) से मिला देती है जो उसकी कमियों को जानते हुए भी उससे शादी करता है. नवीन सरकार एक सरकारी मुलाजिम है जो (संजय गांधी का करेक्टर को पर्दे में उतार रहे) चीफ (नील नितिन मुकेश) के चमचे मंत्री ओमप्रकाश का विशेष सलाहकार है वो हर सरकारी कामों में उसका साथ देता है चाहे वो इमरजेंसी में की जाने वाली ज्यादतियां ही क्यों न हो.
नवीन इमरजेंसी के इस समय में अपने करियर को ऊंचाईयों तक पहुंचाना चाहता है और अपने सपनों को साकार करना चाहता है. दबी जुबान से कई बार इमरजेंसी की बुराईयों के खिलाफ इंदु बोलने की कोशिश करती है लेकिन उसकी आवाज दबा दी जाती है. आखिरकार कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है जब आपातकाल के हालात इंदू को भी प्रभावित कर देते हैं और वो इमरजेंसी के खिलाफ बागी तेवर अपना लेती है और अपने पति तक को छोड़ देती है. देशहित के लिए इंदू कई उतार-चढ़ावों को झेलती है और अंतत: आपातकाल खत्म होता है और कई सवाल छोड़ जाता है.
अभिनय– फिल्म में पात्रों के अभिनय की बात करें तो सभी किरदारों ने अपना रोल बखूबी निभाया है. ‘पिंक’ के बाद कीर्ति इंदू के किरदार में भी दमदार दिखी हैं. नील नितिन मुकेश का लुक उन्हें संजय गांधी के किरदार में हुबहु ढालता है लेकिन अदाकारी में थोड़ी और कसावट की गुंजाइश नजर आ रही है.
अनुपम खेर हमेशा की तरह अपने रोल के साथ न्याय करते नजर आये हैं लेकिन कुछ खास या अलग नहीं कर पाए हैं. वहीं सुप्रिया विनोद के लिए फिल्म में एक्टिंग करने को कुछ है ही नहीं. ऐसा लगता है कि सिर्फ कन्ट्रोवर्सी के लिए उन्हें इंदिरा गांधी की डमी की तरह इस्तेमाल किया गया है.
म्यूजिक– गानों के नाम पर फिल्म में बस लोगों को ‘चढ़ता सूरज’ कव्वाली से ही संतोष करना पड़ेगा जो दर्शक काफी अर्से से सुनते आ रहे हैं.
रिव्यू- कुल मिलाकर फिल्म के बारे में कहा जाए तो फिल्म उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी है. फिल्म से दर्शकों को इससे ज्यादा की उम्मीद थी. लीक से हटकर सिनेमा देने वाले मधुर भंडारकर पेज-3 और फैशन का मैजिक रीक्रिएट नहीं कर पाए हैं. ऐसा लग रहा है कि फैक्ट और फिक्शन में मधुर उलझ कर रह गए हैं. कहानी दमदार है लेकिन उसमें पेस की कमी है.
फिल्म कहने को इमरजेंसी के दौरान की है लेकिन उस वक्त के पूरे हालातों को समेट नहीं पायी है और सिर्फ नसबंदी और मीडियाबंदी में उलझी सी मालूम पड़ रही है. मधुर न तो पूरी तरह से काल्पनिकता को सजीव कर पाये हैं और न ही सच्चाई को दमदार तरीके से फिल्म के तानेबाने में बुन पाए है. फिल्म का फर्स्ट हॉफ सिर्फ कहानी को जमाने में निकल गया है और फिल्म का बाकी आधा हिस्सा हद से ज्यादा उबाऊ हो गया है.
सही मायनों में देखा जाए तो फिल्म में कन्ट्रोवर्सी जैसा कुछ नहीं है फिल्म के कुछ किरदारों का लुक अगर बदल दिया जाता तो शायद विवाद का मुद्दा उठाने जैसा कुछ भी होता ही नहीं. शाह कमीशन की रिपोर्ट और सरकारी महकमों के इनपुट जुटाने के बाद भी ऐसा लग रहा है कि फिल्म आपातकाल पर बनी तो जरूर है लेकिन उसमें विषय की गहराई में घुसने से परहेज कर रही है. लग रहा है 'इंदू सरकार' नाम देकर और किरदारों को कांग्रेस के कुछ नेताओं से मिलता जुलता लुक देकर हमेशा के तरह मधुर विवादों में आना तो चाहते थे लेकिन विवादों में फंसना नहीं चाहते थे. यही कारण उन्होंने फूंक-फूंक के कदम रखा है.
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