'भोजपुरी फिल्में:शरीर है,आत्मा मरी'
भोजपुरी फिल्मों में शरीर तो रह गया है लेकिन उनकी आत्मा मर गयी है.
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सिनेमा जगत को 50 वर्ष पहले प्रथम भोजपुरी फिल्म देने वाले विश्वनाथ शाहाबादी के पुत्र राजकुमार को मलाल है कि द्विअर्थी बोल और सस्ती लोकप्रियता वाली कहानी के कारण भोजपुरी फिल्मों में शरीर तो रह गया है लेकिन उनकी आत्मा मर गयी है.
उनका कहना है कि रुपहले पर्दे पर पदार्पण की स्वर्ण जयंती मनाने वाले भोजपुरी सिनेमा ने यदि झंझावातों से गुजरते हुए खुद को स्थापित किया है तो दूसरी तरफ मुख्य सामाजिक स्वरूप, लोकप्रिय बोल और कर्णप्रिय संगीत वाली उसकी विरासत नष्ट हो गयी है.
वर्ष 1961 में 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' से भोजपुरी की पहली फिल्म की शुरूआत हुई और अब भोजपुरिया सिनेमा जगत धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए 50 वर्ष का हो गया है. बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश विदेश के कई स्थानों में बोली जाने वाली भोजपुरी ने सिनेमा जगत के लिए एक बड़ा दर्शक वर्ग दिया है.
बाजार की ताकत ने जिस प्रकार सामाजिक संदेश देने की ताकत अन्य फिल्मों से छीनी है भोजपुरी भी इससे अछूता नहीं रह पाया है. शाहाबादी ने कहा कि आज भोजपुरी फिल्मों की दुर्दशा देखकर मन को बहुत ठेस पहुंचती है.
शाहाबादी घराने की निर्मल पिक्चर्स ने 1961 में 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' बनाकर माटी से जुड़ी फिल्में बनाने की परंपरा डाली. राजकुमार शाहाबादी को गर्व है कि उन्होंने क्षुद्र लाभ के लिए भोजपुरी फिल्मों की गरिमा कम नहीं होने दी.
शाहाबादी ने बताया कि श्वेत श्याम युग में उनके पिता ने विधवा विवाह, बाल विवाह और सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करती हुई गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैइबो, सोलह श्रृंगार करे दुल्हनियां, गंगाधाम जैसी फिल्में बनाकर भोजपुरी फिल्मों के प्रथम चरण को यादगार बनाया जबकि गंगा किनारे मोरा गांव, गंगा दूल्हा पार के जैसी फिल्मों ने दूसरे चरण में भरपूर कर्णप्रिय संगीत और पारिवारिक फिल्मों से अन्य निर्माता निर्देशकों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया.
वर्ष 2000 में विश्वनाथ शाहाबादी के निधन के बाद 2004 में 'गंगा जइसन प्रीतिइया हमार' जैसी लोकप्रिय फिल्म बनाने वाले राजकुमार कहते हैं कि अब दौर थोड़ा बदल गया है लेकिन निर्माताओं और निर्देशकों ने जिस प्रकार स्तर गिरा दिया है वह समझौता नहीं करना चाहते है.
महान निर्माता के पुत्र राजकुमार शाहाबादी 1982-83 ही फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतर गये थे लेकिन शुरूआती दौर में उन्होंने हिंदी फिल्मों में हाथ आजमाया. वह मानते हैं कि दर्शकों के दिल में अब भी वह पुरानी भोजपुरियत रची बसी है बस उसे जगाने की दरकार है.
शाहाबादी कहते हैं कि विषयों की कमी नहीं है लेकिन बीड़ा उठाना होगा जिससे सस्ती फिल्मों जैसे खोटे सिक्के बाजार से बाहर हो. तीसरे दौर यानि वर्तमान भोजपुरी फिल्मों को 'चवन्नी छाप' की संज्ञा देते हुए शाहाबादी कहते हैं कि ये कब आती हैं और सिनेमाघरों से कब उतर जाती है पता ही नहीं चलता.
शाहाबादी कहते हैं कि भोजपुरी फिल्मों के कुछ कथित ठेकेदार जिनमें केवल धनलोलुप निर्माता और वितरक हैं वे 'गंगा मइया तोहे....." जैसी फिल्मों की सामाजिक पवित्रता की कद्र नहीं जानते हैं और सिनेमा की स्वर्ण जयंती में अमृत मंथन को निकल पड़े हैं.
भोजपुरिया सिनेमा की नाव को श्वेत श्याम युग से रंगीन युग तक पार लगाने में दर्शकों को खेवनहार बताने वाले शाहाबादी को पूरा भरोसा है कि सुनहरा, मनोरम, स्वस्थ मनोरंजन और मधुर कर्णप्रिय संगीत की पुरवाई फिर बहेगी.
महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल की तर्ज पर क्रमश: मराठी तथा बांग्ला की तरह वह बिहार में भी भोजपुरी फिल्मों के प्रोत्साहन का केंद्र स्थापित करने की पुरानी योजना के पूरा होने के प्रति आशान्वित है.
शाहाबादी ने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में भोजपुरी फिल्मों के इतने बड़े बाजार को प्रोत्साहन का टोटा दूर होगा. उनका कहना है कि राज्य सरकार यहां फिल्म प्रशिक्षण केंद्र, शूटिंग के लिए सुविधा और अन्य बुनियादी ढांचा विकसित करे तो बिहार एक बड़े सिनेमा उद्योग केंद्र के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर सकेगा.
शाहाबादी कहते हैं कि सिनेमाघरों को भी चाहिए कि वह अच्छी फिल्मों को प्रोत्साहन दे. भोजपुरी उस पराग के कण की तरह है जिसने हिंदी फिल्मों के गीतों के बोलों में मिश्री घोली है.
हाल में भोजपुरी फिल्मों की स्वर्ण जयंती पर पटना में हुए आयोजन पर वह कहते हैं कि लोगों को ऐसे भोजपुरी के कथित ठेकेदारों से सावधान रहने की जरूरत है.
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