बदली सत्ता, बदलेगी सोच?
इमरान खान जब क्रिकेट खेला करते थे, तब उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा खिलाड़ी माना जाता था। एक ऐसा ऑलराउंडर जो गेंद और बल्ले, दोनों से अपने दम पर मैच का रुख बदलना जानता था। फिर वो ऐसे कप्तान भी बने जिसके हार को जीत में बदल देने वाले फन का कायल केवल पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि क्रिकेट खेलने वाला हर देश बना।
बदली सत्ता, बदलेगी सोच? |
उस दौर में बहुतों का यह मानना था कि विरोधियों को पटखनी देने वाला हुनर इमरान को कुदरत से मिला है। करीब तीन दशक बाद उसी कुदरत ने उन्हें दो ऐसे ‘खिलाड़ियों’ के मुकाबले में ला खड़ा किया जो हमेशा इमरान की महारत वाले खेल से दूर रहे-पहला खिलाड़ी अमेरिका, दूसरा चीन। शायद यह भी वजह रही कि जो इमरान खेल के मैदान में अपने विरोधी की हर चाल से वाकिफ रहते थे, वे कूटनीति के खेल में इन ‘दोनों खिलाड़ियों’ का आकलन करने में चूक कर गए और न केवल पाकिस्तान के राष्ट्रीय नायक के रूप में, बल्कि अपने जीवन के भी सबसे बड़े सार्वजनिक इम्तिहान में मात खा गए। पाकिस्तान में किसी भी प्रधानमंत्री ने आज तक लगातार पूरे पांच साल का संसदीय कार्यकाल पूरा नहीं किया है। इमरान खान अब पाकिस्तान की इस पुरानी पहचान का सबसे नया नाम बन गए हैं।
लेकिन इमरान जिस परीक्षा में फेल हुए क्या उसे पूरी तरह से अमेरिका और चीन का खेल बताना ठीक होगा। यह ठीक है कि अपने अस्तित्व से पाकिस्तान के किसी हुक्मरान ने अमेरिका से उस तरह की दुश्मनी मोल नहीं ली जैसी इमरान ने ली। किसी दूसरे देश ने चीन से भी उस तरह दोस्ती नहीं निभाई, जैसी इमरान ने निभाई। नतीजा क्या निकला? एक ‘खिलाड़ी’ ने फौज की ‘आंखों का तारा’ रहे इमरान को उसकी ‘आंख की किरकिरी’ बना दिया, तो दूसरे ‘खिलाड़ी’ के विस्तारवादी जुनून ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का दिवालिया निकाल दिया। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ की निगरानी सूची में बने रहने से पाकिस्तान को हर साल करीब दस अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान पर इस समय करीब इक्यावन लाख करोड़ पाकिस्तानी रुपये का कर्ज और देनदारियां हैं। इसमें से करीब इक्कीस लाख करोड़ रुपये का कर्ज इमरान के राज में बढ़ा है। पाकिस्तान की जीडीपी और मौजूदा कर्ज का अनुपात करीब तीस फीसद तक पहुंच गया है।
बड़े-बड़े वादे किए थे इमरान ने
नए पाकिस्तान के इरादे के साथ इमरान ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तब उन्होंने कई बड़े-बड़े वादे किए थे। लेकिन मरणासन्न अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के बजाय वो खुद अपने दावों और वादों में उलझकर रह गए। ऐसे में इमरान का हर दांव ‘ट्रंपकार्ड’ बनने के बजाय उन्हें पाकिस्तान की सियासत का ‘ट्रंप’ बनाता गया। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरह इमरान सभी विपक्षी नेताओं को भ्रष्ट और खुद को पाकिस्तान का अकेला संरक्षक बताते रहे। ओसामा बिन लादेन को ‘शहीद’ बताकर उन्होंने अमेरिका को नाराज किया, तो पंजाब में एक नातजुर्बेकार मुख्यमंत्री बैठाकर बैठे-बैठाए विपक्ष को नया हथियार पकड़ा दिया। शासन में सुधार के लिए शुरू की गई स्वास्थ्य बीमा योजना से कोरोना के लचर प्रबंधन तक और महंगाई की बेलगाम रफ्तार से पाकिस्तानी रुपये के अवमूल्यन तक, इमरान का हर फैसला उन्हें धीरे-धीरे अवाम से दूर करता रहा। नौबत यहां तक आ गई थी कि जिन ‘शरीफों’, ‘जरदारी’ और ‘भुट्टो’ से लोगों का मोहभंग हो गया था, उन्हीं के लिए लोग कहने लगे कि भले ही वो अपने घर भरते थे, लेकिन थोड़ा बहुत काम भी तो करते थे।
इस सबके बाद भी इमरान की कुर्सी बची रहती, अगर उन्होंने वो काम नहीं किया होता जिसे ‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने’ का पाकिस्तानी तर्जुमा कहा जाता है। दरअसल, सेना के सुप्रीम पद के लिए जनरल बाजवा की जगह लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद की तरफदारी इमरान को भारी पड़ी। हमीद को पाकिस्तान में ऐसे शख्स के तौर पर देखा जाता रहा है जो सेना का नेतृत्व करने की तुलना में विरोधियों और आलोचकों का मुंह बंद करने में ज्यादा सक्षम है। अगले चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए इमरान खान हमीद को सेनाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाना चाहते थे जो न तो नए पाकिस्तान के उनके वादे के अनुरूप था और न ही सेना को पसंद था। भले ही दोनों पक्ष इस बात से इनकार करें, लेकिन यह पाकिस्तान का व्यापक सच है कि जिस शक्तिशाली सेना और शातिर खुफिया सेवा के दखल ने इमरान को कुर्सी पर बैठाया, उसी ने उन्हें सत्ता से बेदखल भी कर दिखाया।
इसमें थोड़ा अमेरिका का एंगल भी है। ‘घर के भेदियों’ के खिलाफ आखिरी दम तक लड़ने का प्रोपेगैंडा जब पाकिस्तानी अवाम में कोई भावनात्मक ज्वार नहीं ला पाया, तो इमरान ने अमेरिका विरोध का राग छेड़ दिया। इमरान ने वाशिंगटन में पाकिस्तानी राजदूत के भेजे गए एक राजनयिक केबल को अपनी सरकार गिराने की साजिश के तौर पर देश के सामने पेश किया। हद ये हुई कि इसमें सियासी विरोधियों के साथ-साथ उन्होंने सेना को भी घसीट लिया। सेना पर इस अविास की कीमत इमरान ने पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में लाए गए अविास प्रस्ताव पर हार से चुकाई। ऐसे में फिलहाल अमेरिका को लेकर इमरान के दावे का पोस्टमार्टम ठीक वैसा ही हो गया है जैसे ‘सांप गुजर जाने के बाद लाठी पीटना’। पाकिस्तान में अगले चुनाव में यह मुद्दा अवश्य बन सकता है, लेकिन फिर उसका असर इस बात से तय होगा कि नई सरकार कितने दिन तक टिकती है? सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर लेती है तो इमरान को सत्ता में वापसी के लिए कोई नया दांव चलना पड़ेगा।
इमरान का सत्ता से बाहर होने का मतलब
भारत के नजरिए से शरीफ की सत्ता में वापसी की तुलना में इमरान का सत्ता से बाहर होना ज्यादा अहमियत रखता है। प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने के कुछ ही मिनटों के भीतर शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बधाई देना इस बात का संदेश भी है। इमरान की बेदखली ने उम्मीद जगाई है कि दोनों देश अब विकास से जुड़ी चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित कर अपने नागरिकों की भलाई और समृद्धि सुनिश्चित कर सकेंगे। प्रधानमंत्री मोदी के शरीफ परिवार के साथ अच्छे व्यक्तिगत संबंध भी हैं। दिसम्बर, 2015 में लाहौर का उनका अप्रत्याशित दौरा और तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात एक दशक से भी अधिक समय में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पाकिस्तान की पहली यात्रा थी। यह यात्रा मुंबई आतंकी हमलों के बाद बरसों तक द्विपक्षीय संबंधों पर जमी बर्फ को तोड़ने के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण थी। इमरान की तुलना में शरीफ भारत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बयानबाजी के मामले में भी ज्यादा ‘शरीफ’ हैं। हालांकि ताजा घटनाक्रम में अब भारत के सामने शरीफ और सेना के बीच संतुलन साधने की चुनौती आएगी। पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में शरीफ परिवार का सेना से कड़वा रिश्ता रहा है लेकिन अच्छी बात है कि इमरान की चीन-केंद्रित नीतियों की तुलना में शरीफ और सेना, दोनों पाकिस्तान के संबंधों में विविधता लाने की जरूरत को समझते हैं।
कश्मीर के प्रति शरीफ का रुख
पिछले दो साल से भारत की पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल बाजवा के साथ बैकचैनल बातचीत चल रही है, जिसके असर से जम्मू-कश्मीर में सीमा पार से घुसपैठ में उल्लेखनीय गिरावट आई है। संभव है कि शहबाज शरीफ पर्दे के पीछे की बातचीत को खुलकर आगे ले जाने में सक्षम हों और भारत भी इसमें दिलचस्पी ले सके। हालांकि शरीफ के उद्घाटन भाषण में कश्मीर के जिक्र से थोड़ी सनसनी फैली थी, लेकिन इसे सियासी तीर चलाने के बजाय पाकिस्तान के हर नए प्रधानमंत्री की राजनीतिक मजबूरी के तौर पर लिया जाना चाहिए। अगर सब कुछ ठीक रहा, तो सितम्बर में उज्बेकिस्तान के समरकंद में हो रहे शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी और शहबाज शरीफ की पहली मुलाकात हो सकती है। एक संभावना यह भी दिखती है कि अगर पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता आती है तो इमरान सरकार के समय से प्रतिबंधित भारत-पाकिस्तान व्यापार भी आने वाले हफ्तों और महीनों में सामान्य हो सकता है। व्यापार की बहाली आगे चलकर सियाचिन और कश्मीर के विवादित मुद्दों पर विास बहाली का आधार भी बन सकती है। इससे अनुच्छेद 370 लागू होने के बाद पाकिस्तान लौटे राजदूत की जगह नए राजदूत की नियुक्ति की राह भी खुल सकती है।
जो दो ‘खिलाड़ी’ पाकिस्तान में-परोक्ष रूप से ही सही-बदलाव की पटकथा के अहम किरदार साबित हुए हैं, वो आगे भी पाकिस्तान के लिए महत्त्वपूर्ण बने रहेंगे। सीपेक और बीआरआई जैसी महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के कारण चीन इस समय पाकिस्तान के लिए सबसे विसनीय, भरोसेमंद, शक्तिशाली और अपूरणीय भागीदार है। शाहबाज शरीफ उस परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जो लंबे समय से चीन-पाकिस्तान संबंधों को बढ़ावा देता रहा है। नवाज शरीफ सीपेक परियोजना की शुरु आत करने वाले नेता रहे हैं। शहबाज भी जब पंजाब के पूर्वी प्रांत के क्षेत्रीय नेता थे, तो उन्होंने स्थानीय बुनियादी ढांचे और आर्थिक विकास में सुधार के लिए सीधे चीन के साथ कई बीआरआई सहयोग सौदे किए। दूसरी तरफ अमेरिका है जिसे सेना पाकिस्तान में स्थायित्व के लिए साथ लेकर चलना जरूरी समझती है। चुनौती पाकिस्तान के लिए है कि वो वैिक राजनीति के दो धुर विरोधी बन चुके ध्रुवों के बीच कैसे सामंजस्य बैठाता है?
शरीफ के सामने एक चुनौती इमरान के राज में ताकतवर हुए कट्टपंथियों से निबटने की भी रहेगी। रियासत-ए-मदीना के नैतिक और आध्यात्मिक स्वरूप की पैरवी करने वाले इमरान सरकार के दौरान अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता वापसी के बाद पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी का प्रभाव बढ़ा है। यह आतंकी संगठन पाकिस्तान में शरिया पर आधारित कट्टरपंथी इस्लामी शासन कायम करना चाहता है। बेनजीर भुट्टो की हत्या के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले इस आतंकी संगठन के प्रति उदार रु ख के लिए इमरान आलोचना झेलते रहे थे। इस पर खामोशी के कारण फौज पर भी कट्टरवादियों की सरपरस्ती को लेकर सवाल उठे। अब गठबंधन वाली सरकार में भुट्टो के परिवार की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की मौजूदगी इस सवाल को और पेचीदा बना सकती है। वैसे कट्टरपंथ से जुड़ा सवाल पाकिस्तान के भारत से संबंधों के मामले में भी निर्णायक भूमिका निभाता है। क्या इस बार सत्ता परिवर्तन पाकिस्तान की सोच में भी किसी परिवर्तन की राह खोलेगा?
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