तबाही के 'वायरस' का मनोविज्ञान

Last Updated 26 Mar 2022 12:53:46 AM IST

दो वर्ष पूर्व 24 मार्च, 2020 को कोरोना संक्रमण की वजह से देश में पहली बार 21 दिनों का लॉकडाउन लगा था। उसके बाद अलग-अलग अवधि और कम-ज्यादा बंदिशों के साथ लॉकडाउन किसी-न-किसी रूप में हम सबके जीवन का हिस्सा बना रहा। अब दो साल बाद हमारा जीवन बदलने जा रहा है।


तबाही के 'वायरस' का मनोविज्ञान

केंद्र सरकार ने 31 मार्च, 2022 से कोविड संबंधी पाबंदियां हटाने का फैसला किया है। जाहिर तौर पर इसकी बड़ी वजहों में हमारे कोरोना योद्धाओं के अथक परिश्रम के साथ ही हमारा टीकाकरण कार्यक्रम भी है, जो न केवल दुनिया में सबसे बड़ा है, बल्कि सबसे सफल भी रहा है। 18 वर्ष से अधिक उम्र की देश की 83 फीसद आबादी को वैक्सीन की दोनों डोज लग चुकी हैं। 15-18 आयु वर्ग में कुल वैक्सीनेशन डोज का आंकड़ा 10 करोड़ के करीब पहुंच चुका है, वहीं 12 से 14 वर्ष आयु वर्ग में अब तक वैक्सीन की 85 लाख से ज्यादा डोज लगाई जा चुकी हैं।  

हालांकि इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम तमाम सावधानियां भुलाकर फिर संक्रमण के खतरे को अपने घर ले आएं। कोविड से जुड़ी बंदिशें हटाई जा रही हैं, लेकिन मास्क लगाने और सोशल डिस्टेंसिंग रखने की शर्त बरकरार है। ऐसी आशंका है कि मई-जून में कोरोना की चौथी लहर भारत का रु ख कर सकती है। स्वास्थ्य तंत्र के कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि चौथी लहर पुराने वैरिएंट से नहीं आएगी। इसका विश्लेषण यह हो सकता है कि इसका प्रभाव कैसा होगा, यह इसके आने के बाद ही तय होगा। इसलिए फिलहाल घबराने की नहीं, सावधान रहने की जरूरत है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि तीसरी लहर में ओमीक्रोन की हिस्सेदारी ज्यादा थी और इसने दुनिया के कई देशों में कहर बरपाया लेकिन हमारे यहां इसका ज्यादा प्रभाव नहीं दिखा। ऐसे में कोविड अनुरूप व्यवहार और वैक्सीनेशन ही हमारे हथियार बने रहेंगे। भारत के लिए वैक्सीन की उपलब्धता से ज्यादा बड़ी चुनौती पात्र लोगों की तलाश है। क्षमता के आधार पर तो भारत आधी दुनिया को वैक्सीन लगा सकता है। वैक्सीन मैत्री के तहत हमने दुनिया को ऐसा करके भी दिखाया है। हजारों शहर और लाखों गांव-कस्बों वाले देश में असल चुनौती लोगों को ढूंढकर वैक्सीन लगाना है। इसलिए बेहतर होगा कि जो लोग अभी भी वैक्सीनेशन के दायरे से बाहर हैं, खुद आगे आकर टीका लगवाएं। महामारी के दौर में यह भी एक तरह की राष्ट्रसेवा ही होगी।  

दो बड़े सवाल जरूर ऐसे हैं, जिन पर फिलहाल स्पष्टता नहीं है। पहली बूस्टर डोज को लेकर है जिस पर देश में बहुत उत्साह मिश्रित दिलचस्पी दिखती है। मेरा मानना है कि इस पर किसी भेड़चाल में शामिल होने से बेहतर होगा कि हम उन देशों से सबक लें जहां बूस्टर डोज दिए जा चुके हैं। जैसे सिंगापुर या यूरोप जहां बूस्टर डोज के बाद भी संक्रमण नहीं थमा है। दूसरा सवाल छोटे बच्चों की वैक्सीन को लेकर है और दरअसल पहले सवाल की तुलना में इसे ज्यादा तवज्जो की जरूरत है। लेकिन मुश्किल यह है कि वैक्सीन कई दौर में तैयार होती है। अभी हम 12 से 14 वर्ष के आयु वर्ग तक पहुंचे हैं। अगली वैक्सीन 5 से 12 वर्ष के बच्चों की हो सकती है, फिर 2 से 5 साल वाले बच्चों का नम्बर आएगा और फिर उसके बाद हमारे दो साल से छोटे बच्चों का यानी ऐसे बच्चों के अभिभावकों के लिए अभी कुछ समय तक कोविड अनुरूप व्यवहार ही उनके नौनिहालों का सुरक्षा कवच बना रहने वाला है।

ट्रैक पर अर्थव्यवस्था
इस सबके बीच राहत की बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था फिलहाल सही ट्रैक पर है। दो साल पहले जब पहली तालाबंदी हुई थी, तब जीडीपी गर्त में और बेरोजगारी एवं महंगाई दर चरम पर थी। इस लिहाज से रिकवरी उम्मीद से बेहतर रही है। जीडीपी अपने निचले स्तर से 30 फीसद तक सुधर चुकी है, वहीं बेरोजगारी दर भी 15 फीसद तक घटी है। बाजार का हाल सेंसेक्स की चाल से पता चलता है, जो बीते दो साल में 31 हजार अंक तक बढ़ चुका है। रियल एस्टेट, ऑटो सेक्टर और मैन्युफैक्चरिंग में पुरानी तेजी लौट आई है, तो देश का निर्यात भी पहली बार 400 अरब डॉलर यानी करीब 30.6 लाख करोड़ के स्तर को पार कर गया है।

इसके बावजूद अर्थव्यवस्था के विकास को लेकर पुराने अनुमान लगातार बदलकर कम किए जा रहे हैं। वजह रूस-यूक्रेन संघर्ष है। बीते सप्ताह रेटिंग एजेंसी फिंच ने भारत की विकास दर के अनुमान को घटाकर 8.5 फीसद कर दिया है। उससे एक हफ्ते पहले मूडीज भी विकास दर के अनुमान को 9.5 फीसद से घटाकर 9.1 फीसद कर चुकी है। वहीं, संयुक्त राष्ट्र ने 2021-22 के लिए भारत के विकास दर अनुमान को दो फीसद घटाकर 4.6 फीसद कर दिया है। पहले वृद्धि का अनुमान 6.7 फीसद रहने का था। हमारे अपने केंद्रीय बैंक आरबीआई का भी मानना है कि कच्चे तेल के दाम में उछाल अर्थव्यवस्था पर दबाव की वजह बन सकता है। 24 फरवरी से यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद आपूर्ति बाधित होने की आशंका से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें पिछले सप्ताह 140 डॉलर प्रति बैरल के 14 साल के उच्चतम स्तर के करीब पहुंच गई थीं। हालांकि इसके बाद तेज गिरावट के कारण ब्रेंट क्रूड 100 डॉलर प्रति बैरल तक भी आया, लेकिन घरेलू जरूरत पूरी करने के लिए तेल आयात पर 85 फीसद निर्भरता के कारण भारत के लिए यह स्तर भी काफी ऊंचा है।

ऐसे वक्त में रूस से आई सस्ते तेल की पेशकश को लेकर भारत की राह आसान होने के लंबे-चौड़े दावे भी किए जा रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि इससे भी कोई खास राहत नहीं मिलने वाली है क्योंकि हमारी जरूरत का केवल दो-तीन फीसद तेल ही रूस से आता है। दरअसल, इस सौदे से जुड़ा बड़ा बदलाव कहीं और हो रहा है। रूस पर लगी बंदिशों में से एक स्विफ्ट तक उसकी पहुंच रोकने की है, इसलिए तेल का सौदा रूबल में होने की बात चल रही है। उधर, तेल के सबसे बड़े उत्पादक सऊदी अरब और चीन के बीच भी अपनी मुद्रा युआन में तेल खरीदने की बातचीत चल रही है। अगर रूस-भारत और चीन-सऊदी अरब की बातचीत जमीन पर उतरती है, तो यह पेट्रो मार्केट में डॉलर के एकाधिकार को तोड़ेगी।

अमेरिकी एकाधिकार को चुनौती
वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिका को सुपर पावर की पहचान देने में डॉलर के दबदबे का बड़ा हाथ रहा है। डॉलर ही वैश्विक तेल व्यापार की मुद्रा भी है। दुनिया के हर देश को तेल खरीदने के लिए अमेरिकी डॉलर की जरूरत पड़ती है। इसके लिए ये देश अमेरिका से तेल खरीदें या न खरीदें, उसे तेल बेचें या न बेचें, फिर भी वो डॉलर जमा करने के लिए बाध्य हैं। इसके लिए अमेरिका को ज्यादा संख्या में डॉलर छापने पड़ते हैं, जो अमेरिका की उच्च जीवन शैली को बनाए रखने में मदद करता है। अमेरिका की किस्मत से तेल दुनिया में सबसे अधिक कारोबार वाली वस्तु भी है। इसलिए येन-केन-प्रकारेण वो अब तक डॉलर के अलावा दूसरी मुद्राओं में तेल खरीदने और बेचने की कोशिशों को नाकाम करता रहा है। फिर भी जिन्होंने हिमाकत की, उन्होंने उसकी भारी कीमत चुकाई। इराक के सद्दाम हुसैन और लीबिया के मुअम्मर गद्दाफी इस बात के उदाहरण हैं। सद्दाम के ताबूत में आखिरी कील दरअसल डॉलर की बजाय यूरो में इराकी तेल बेचने का ही फैसला बना। इसी तरह अपना तेल डॉलर की बजाय दूसरी मुद्राओं में बेचना गद्दाफी को भारी पड़ा था। दोनों ने पहले सत्ता गंवाई और फिर अपनी-अपनी जान। चीन, रूस, ईरान और वेनेजुएला जैसे देश में जरूर यह प्रयोग छोटी-मोटी कामयाबियों के साथ चलता रहता है। रूस और चीन की यह ताजा पहल निश्चित रूप से तेल के कारोबार में डॉलर के दबदबे को चुनौती देने वाले अभियान की बुनियाद को और मजबूत करेगी।

अमेरिका अपने एकाधिकार को मिलने जा रही चुनौती पर कैसे प्रतिक्रिया देगा, यह देखने वाली बात होगी। क्या यूक्रेन युद्ध पर नाटो, जी-7, जी-20 देशों को लामबंद करने के लिए उसकी अचानक बढ़ी सक्रियता को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है? चीन को रूस से अलग-थलग करने के लिए धमकी भरे कड़े बयानों का भी क्या इससे कोई कनेक्शन है? इस संकट पर उसकी नापसंदगी के बावजूद ‘कच्चे तेल के तीसरे सबसे बड़े आयातक’ भारत का रूस के पक्ष में ‘गुट-निरपेक्षता’ वाले स्टैंड पर अब तक अमेरिका का संयमित रुख आखिर भविष्य की किस रणनीति का हिस्सा है?

अमेरिका से जुड़े इन तमाम सवालों के जवाब आने वाले दिनों में ही साफ हो पाएंगे, लेकिन जो एक बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है वो यह है कि कोरोना जैसी महामारी भी दुनिया के मनोविज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं ला पाई है। महामारी के जिस जानलेवा वायरस से मानवता को बचाने के लिए पूरी दुनिया के एक हो जाने का दावा किया जा रहा था, अब वही दुनिया महायुद्ध की आड़ में मानवता को मात देने के लिए अलग-अलग खेमों में बंटकर हथियारों की धार और तबाही की मार को रफ्तार देने में जुटी है। आखिर, यह कैसी विडंबना है कि कोरोना महामारी के खिलाफ युद्ध तो हमने जीत लिया, लेकिन युद्ध का वायरस हम दूर नहीं कर पा रहे हैं।

उपेन्द्र राय


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