अर्थव्यवस्था की ’संजीवनी‘ बने अमृतकाल का बजट

Last Updated 29 Jan 2022 11:06:02 AM IST

इस बार का आम बजट कितना खास होगा? वैसे तो इस सवाल के जवाब का इंतजार अब महज दो दिनों का रह गया है, फिर भी परंपरा के तहत देश में अनुमानों पर ही जमकर विश्लेषण हो रहे हैं।


अर्थव्यवस्था की ’संजीवनी‘ बने अमृतकाल का बजट

बजट के व्यापक सरोकार और राष्ट्रीय उत्सुकता के बीच यह स्वाभाविक भी है। मंगलवार को मोदी सरकार का 10वां और केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के कार्यकाल का चौथा बजट वैसे भी ऐसे समय में पेश होगा, जब महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था और महंगाई ने आम आदमी की चुनौती बढ़ा रखी है। जाहिर तौर पर सरोकार बेहद व्यापक है, और उत्सुकता चरम पर। अपेक्षा तो यही है कि बजट देश के विकास और आम अवाम को राहत देने वाला हो, लेकिन यह कहने में जितना सरल लगता है, क्या इसे अमलीजामा पहनाना वित्त मंत्री के लिए भी उतना ही सरल होगा? व्यावहारिक तौर पर शायद नहीं। और यह बात केवल निर्मला सीतारमण के संदर्भ में ही नहीं, भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के किसी भी वित्त मंत्री के लिए चुनौती ही साबित होती आई है। वैसे भी मौजूदा परिस्थितियों में केवल महामारी और महंगाई ही नहीं, उनसे जुड़ी कई और चुनौतियां भी हैं, जिनका ‘रामबाण’ इलाज ढूंढना आसान नहीं होगा। कोरोना काल में वित्त मंत्री के सामने एक तरफ सरकारी खर्च बढ़ाना जरूरी है, तो दूसरी ओर राजकोषीय घाटे को कम रखने की मजबूरी भी है। इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रिकवरी को के-शेप का आकार लेने से रोकना है, तो महंगाई से राहत और रोजगार की चाहत पूरी करने का जबर्दस्त दबाव भी है।

बजट का सवरेपरि लक्ष्य
वित्त मंत्री चाहे कोई भी हो, बजट का उसका सर्वोपरि लक्ष्य इकोनॉमी की मजबूती पर केंद्रित होता है। अगर मौजूदा वित्त मंत्री भी इस परंपरा को ही आगे बढ़ाती हैं, तो हमें बजट में राजकोषीय स्थिति में सुधार पर फोकस दिखना चाहिए। कोरोना महामारी से निपटने के लिए पिछले दो साल में बढ़े सरकारी खर्च ने देश की तिजोरी को काफी खाली किया है। इसके कारण पिछले वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटा 9.5 फीसद तक पहुंच गया था। सरकार का आकलन है कि इस साल यह 6.8 फीसद रह सकता है। लेकिन महामारी अभी टली नहीं है, और जल्द ही यह विदा होती दिख भी नहीं रही है। यानी आर्थिक सुधार की संभावनाएं सीमित रहेंगी और सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी की तलवार भी लटकी रहेगी। वैसे भी सरकारी खर्च में बड़ी कटौती विकास की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकती है। बुनियादी ढांचा और रोजगार बढ़ाने की चुनौतियां ऐसी हैं, जिन्हें लंबे समय तक टाला नहीं जा सकता। लेकिन इन्हें एडजस्ट करने के लिए राजकोषीय घाटे को बढ़ाने का विकल्प इस बार उतना खुला नहीं है।

अर्थव्यवस्था के ब्राइट और डार्क स्पॉट
इस विषय पर आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बजट से पहले सरकार को कुछ उपाय सुझाए हैं। इनमें उन्होंने अर्थव्यवस्था के कुछ ब्राइट स्पॉट यानी मजबूत क्षेत्र और डार्क स्पॉट यानी कमजोर सेक्टर चिह्नित किए हैं, और अर्थव्यवस्था की दमदार रिकवरी के लिए कमजोर सेक्टरों पर फोकस करने की बात की है। इशारा स्पष्ट है कि राजकोषीय घाटे को ऊंचाई तक जाने से रोकने के लिए सरकार को अपने खचरे को चिह्नित सेक्टरों पर फोकस करना होगा। रघुराम राजन की इस सूची में हेल्थ और आईटी सेक्टर की कंपनियों समेत यूनिकॉर्न और फाइनेंशियल सेक्टर भारतीय इकोनॉमी के चमकदार क्षेत्र हैं, जबकि बेरोजगारी, निम्न मध्यम वर्ग की कम क्रय शक्ति, स्कूली शिक्षा और एमएसएमई कमजोर प्रदशर्न वाले सेक्टर हैं। एमएसएमई को लेकर चिंता वाकई महत्त्वपूर्ण है। जीडीपी में लगभग 30% और ग्रॉस वैल्यू आउटपुट मैन्युफैक्चरिंग में 37 फीसद योगदान के साथ ही एमएसएमई कुल निर्यात में 49% से अधिक की हिस्सेदारी और ग्यारह करोड़ से ज्यादा वर्कफोर्स को रोजगार देने वाला सेक्टर है। वैसे कोरोना काल में सरकार के आर्थिक प्रबंधन का सबसे ज्यादा जोर इसी सेक्टर पर रहा था। 20 लाख करोड़ के आत्मनिर्भर भारत पैकेज के एक बड़े हिस्से से इस सेक्टर में कई सार्थक और प्रभावी उपाय किए गए। ओमीक्रोन के दौर में यह सेक्टर एक बार फिर सरकार से सहयोग की उम्मीद कर रहा है।

अपवाद नहीं है भारत में महंगाई
दूसरा बड़ा सवाल महंगाई को लेकर है, और इस फ्रंट पर हकीकत यह है कि भारत कोई अपवाद नहीं है। दुनिया के सभी देशों में महंगाई सिरदर्द बनी हुई है। अमेरिका में महंगाई 40 साल के उच्च स्तर पर बनी हुई है। वहां केवल एक साल में रोजमर्रा की वस्तुएं 28 फीसद तक महंगी हो गई हैं। कोरोना संकट के दौर में अर्थव्यवस्था को राहत देने के लिए बेहिसाब बढ़ाए गए सरकारी खर्च को इसका जिम्मेदार माना जा रहा है। यही हाल यूरोप का है, जहां तेल की बढ़ती कीमतों पर सवार महंगाई ने 24 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। यूरो का इस्तेमाल करने वाले जर्मनी, फ्रांस, इटली और स्पेन जैसी मजबूत इकोनॉमी में सालाना महंगाई पांच फीसद के करीब है।
 

भारत में महंगाई बढ़ने की मुख्य वजह महंगा आयात, सप्लाई चेन की समस्या, सरकार का बढ़ता राजकोषीय घाटा और भारतीय रिजर्व बैंक की आसान मौद्रिक नीति है। महामारी के दौर में सप्लाई चेन टूटने से महंगे हुए कई सामान अभी भी पुराने स्तर पर नहीं लौट पाए हैं। महंगे तेल और घटती आमदनी ने महंगाई के दंश को और तीखा कर रखा है। ज्यादातर अर्थशास्त्रियों को इस बात का अंदेशा है कि अभी यह दौर आगे भी जारी रहेगा और बजट से ज्यादा उम्मीद रखना निराशाजनक हो सकता है। महंगाई की समस्या इसलिए भी विकराल दिख रही है क्योंकि यह ऐसे समय में देश को चोट पहुंचा रही है, जब बेरोजगारी दर भी अपने उच्च स्तर पर बनी हुई है। पिछले महीने यह दर करीब 8 फीसद तक पहुंच गई। दिलचस्प तथ्य यह है कि देश में जीडीपी का ग्रोथ तो हो रहा है, लेकिन जॉब ग्रोथ नहीं हो रहा है। महामारी ने भारत में उन लोअर मिडिल क्लास के लोगों की असुरक्षा को उजागर कर दिया जो शहरों में जाकर नौकरी करते थे। ग्रामीण भारत में मनरेगा जैसा नेटवर्क है, पर शहरी भारत में ऐसा कुछ नहीं है। इसलिए शहर के कई लोग रिवर्स पलायन करके गांव चले गए ताकि उन्हें मनरेगा जैसा कोई काम मिल जाए। इसलिए महामारी के दौरान गांवों में मनरेगा की डिमांड बढ़ गई है। ऐसे में भारत को तत्काल एक अर्बन सेफ्टी नेट की जरूरत है। शहरी बेरोजगारों के लिए अगर बजट में मनरेगा की तरह किसी योजना का प्रावधान होता है, तो शायद तस्वीर कुछ बदले।

अभी टली नहीं है महामारी
यह इसलिए भी जरूरी है कि महामारी का दौर अभी पूरा नहीं हुआ है। कोरोना का नया वैरिएंट ओमीक्रोन आने वाले दिनों में चिकित्सकीय और आर्थिक, दोनों तरह की गतिविधियों के लिए चुनौती बना रह सकता है। साथ ही, यह हमें हमारी अर्थव्यवस्था के के-आकार की रिकवरी से बचाने की चेतावनी भी देता है। के-आकार की रिकवरी इस लिहाज से अच्छी नहीं होती कि इसमें कुछ सेक्टर तो तेजी से उबरते हैं, लेकिन कुछ धीमे और पीछे रह जाते हैं। सामान्य स्थिति की ओर लौट रहे अमेरिका में हम इसी तरह के हालात देख रहे हैं।
लेकिन जैसा मैंने शुरू में कहा कि बजट का बड़ा सवाल यही रहेगा कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का निश्चित रोडमैप कैसा होगा? बजट दस्तावेज एक दृष्टिकोण होता है, जिसमें कम-से-कम एक दशक का दृष्टिकोण या सोच दिखनी ही चाहिए। आजादी के अमृत महोत्सव के वक्त आ रहे इस बजट से वैसे भी इस मामले में अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही हैं। तो क्या हम आशा करें कि आजादी के अमृतकाल में हमें अगले 25 साल के आर्थिक रोड मैप की झलक मिलेगी?

उपेन्द्र राय


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