तालिबान से डील नहीं आसान

Last Updated 04 Sep 2021 07:47:57 AM IST

अमेरिकी सेना की पूर्ण वापसी के साथ ही अफगानिस्तान में अब तालिबान की सत्ता कोई डरावना सपना नहीं, बल्कि कड़वी हकीकत बन चुकी है। इंटरनेट पर अफगानिस्तान छोड़ने वाले आखिरी अमेरिकी सैनिक जनरल क्रिस डोनाहुए की ‘भुतहा’ तस्वीर जमकर वायरल हुई है। यह तस्वीर ऐतिहासिक होने के साथ-साथ प्रतीकात्मक भी है।


तालिबान से डील नहीं आसान

एक तरफ यह पिछले दो दशक में अफगानिस्तान में लाखों डॉलर और हजारों सैनिक गंवाने के बाद भी लक्ष्य साधने में असफल रहे अमेरिका के धुंधलाते वैिक रुतबे का जीवंत दस्तावेज है, तो दूसरी तरफ अफगानिस्तान के स्याह दिख रहे भविष्य का चिंताजनक संकेत भी है।

इस घटनाक्रम के लगभग समानांतर हुई एक दूसरी घटना अफगानिस्तान की सत्ता को लेकर वैश्विक सोच की अनिश्चितता का संकेत दे रही है। इसका मंच बना है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, जिसके 13 सदस्यों ने रूस और चीन जैसे स्थायी सदस्यों के सुझावों को दरकिनार करते हुए गुपचुप और चौंकाने वाले अंदाज में तालिबान को मान्यता दी है। कुछ दिनों पहले तक ये सभी देश आतंकी बताकर तालिबान को लानतें भेज रहे थे। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली घटना संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ओर से 16 अगस्त और 27 अगस्त को लगभग एक जैसे मजमून वाले दो अलग-अलग लिखित बयान जारी करना है, जिसमें दूसरे बयान में तालिबान का नाम हटा दिया गया है, जिससे इस मसले पर छाया भ्रम का कोहरा और गहरा हो गया है। यह सब कुछ ऐसे वक्त में हो रहा है जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कमान भारत के हाथों में है। विरोधाभास यह भी है कि घरेलू राजनीति में इसी तालिबान को लेकर जबर्दस्त बहस छिड़ी हुई है और राष्ट्रवाद के तथाकथित पैरोकार एक धार्मिंक धड़े और राजनीतिक विपक्ष को देशद्रोही करार देने पर आमादा हैं।

ऊहापोह के बाद शुरू की बातचीत
कुछ दिनों पहले तक भारत सरकार ने तालिबान को लेकर वेट एंड वॉच वाली रणनीति अपना रखी थी। जब काफी ऊहापोह के बाद सरकार ने बीते मंगलवार को कतर में तालिबान से बातचीत शुरू की, तो यहां देश में विपक्ष ने उसे घेर लिया था। अब जबकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कुर्सी से भारत ने तालिबान को सशर्त मान्यता देने वाले प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगाई है, तो विपक्ष सवाल उठा रहा है कि क्या भारत सरकार अब तालिबान को आतंकी संगठन नहीं मानती? मानती है तो फिर बातचीत क्यों शुरू की और अगर नहीं तो क्या आने वाले दिनों में सरकार जैश, लश्कर, अल कायदा से भी बातचीत का कोई चैनल खोलने जा रही है? हालांकि नहीं भूलना चाहिए कि बातचीत का न्योता तालिबान की ओर से ही आया था और सरकार इसी शर्त पर चर्चा के लिए तैयार हुई है कि आने वाले समय में अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं किया जाएगा। लेकिन कश्मीर को लेकर तालिबान का ‘गेम’ चिंता बढ़ा रहा है। कश्मीर को भारत का आंतरिक मसला बताने के बाद अब तालिबान ने पलटी मार ली है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से मान्यता मिलने के बाद तालिबान अब कह रहा है कि उसे दुनिया भर के मुसलमानों की आवाज उठाने का अधिकार है, और इसमें कश्मीर के मुसलमान भी शामिल हैं।

भारत से तालिबान का रिश्ता
वैसे भी इस दूसरी पारी में खुद को बदले रूप में दिखाने की तालिबान की कोशिशों के बीच भारत से उसका रिश्ता एक हाथ दे, एक हाथ ले वाला दिख रहा है। आतंक को समर्थन न देने के वादे के बदले तालिबान भारत से पुराने व्यापारिक रिश्ते बहाल रखना चाहता है। दरअसल, अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद अब यही तालिबान का सबसे बड़ा इम्तिहान भी है। तख्तापलट से पैदा हुई अस्थिरता के कारण अफगानिस्तान का आर्थिक संकट और गहरा गया है और देश का राजकाज चलाने के लिए तालिबान अब पूरी तरह विदेशी मदद के आसरे है। लेकिन अनिश्चितता के माहौल में यह मदद उस तक पहुंचती दिख नहीं रही है।

अफगान सरकार की संपत्ति फ्रीज
अमेरिका ने अपने बैंकों में रखी अफगान सरकार की 9.5 अरब डॉलर की संपत्ति फ्रीज कर दी है। यह संपत्ति सोना, विदेशी मुद्रा और दूसरे खजाने के रूप में है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी 46 करोड़ डॉलर की मदद रोक दी है। इस सब के बाद पिछले दो दशक में अफगानिस्तान को 5.3 अरब डॉलर की आर्थिक मदद दे चुके वि बैंक ने भी महिला अधिकारों के हनन के सवाल पर आर्थिक सहायता बंद कर दी है। हालांकि अफगानिस्तान में खनिज का अकूत भंडार है, वहां अफीम और सूखे मेवों का भी बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है, लेकिन इसकी कीमत तभी है जब कोई खरीदार मिले। इसके लिए तालिबान को लंबा इंतजार करना पड़ सकता है और यह इंतजार अफगानिस्तान को आर्थिक गर्त में पहुंचा सकता है। इस उथल-पुथल के बीच अफगानी मुद्रा भी छह फीसद तक गिर गई है। इससे महंगाई बढ़ी है जिससे बने भुखमरी के हालात को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने मानवीय तबाही की चेतावनी जारी कर दी है।

गृह युद्ध के संकेत
हालात तभी सुधर सकते हैं, जब अफगानिस्तान में कोई समावेशी सरकार आकार ले। लेकिन आज का सच यही है कि काबुल पर कब्जे के बाद आपसी संघर्ष में तालिबान लगातार विभाजित हो रहा है। हक्कानी नेटवर्क राजनीतिक और सैन्य मामलों में अपनी दखल से सत्ता पर पकड़ मजबूत कर रहा है। वहीं हेलमंडिस और कंधारी इन दोनों समूहों के लिए चुनौती पेश कर रहे हैं। उज्बेक, ताजिक और हजारा भी नई सरकार में अपनी नुमाइंदगी के लिए जोर लगा रहे हैं। उधर पंजशीर में ‘स्वयंभू’ राष्ट्रपति अमरु ल्लाह सालेह के नेतृत्व में नॉर्दर्न अलायंस तालिबान के लिए गले की हड्डी बना हुआ है। कुल मिलाकर अफगानिस्तान में जितनी जातियां और जनजातियां हैं, सभी सत्ता चाहते हैं और हालात नब्बे के दशक में हुए गृह युद्ध की वापसी के संकेत दे रहे हैं।

आतंकी संगठनों के लिए नई मिसाल
सबसे बड़ा खतरा आतंकी संगठनों को लेकर है, जो तालिबान के पुराने दोस्त हैं। आम तौर पर यह फेहरिस्त जैश, लश्कर, आईएस और अल कायदा के जिक्र पर थम जाती है, लेकिन हकीकत यह है कि दुनिया में जितने भी आतंकी संगठन हैं,  सभी तालिबान की हुकूमत वाले अफगानिस्तान को एक नई मिसाल बनाने के लिए बेताब दिख रहे हैं। अल कायदा ने तो दुनिया भर के मुस्लिम इलाकों को मुक्त करने के लिए ग्लोबल जिहाद का ऐलान भी कर दिया है। इसमें कश्मीर का जिक्र तो है, लेकिन चेचन्या और शिनिजयांग को शामिल नहीं करने से चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत साफ दिखाई देती है।

वैिक कन्फ्यूजन
ऐसे में तालिबान को लेकर वैिक स्तर पर एक तरह का कन्फ्यूजन दिखाई दे रहा है। पिछली बार जब तालिबान ने सरकार बनाई थी, तो तीन देशों  पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने उसे मान्यता दी थी। इस बार वहां सरकार बनने से पहले ही उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मान्यता मिल गई है। इसके बावजूद ज्यादातर देशों का रु ख अभी भी साफ नहीं है। अमेरिका और नाटो देश ग्राउंड जीरो से रवाना हो चुके हैं। जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों ने खामोशी की चादर ओढ़ ली है। वहीं पाकिस्तान, ईरान और तुर्की को छोड़कर बाकी मुस्लिम देश भी खास मुखर नहीं हैं। ऐसे में तालिबानी खेमा काबुल में अपना खम ठोंकने के बाद भी वीरान नजर आ रहा है। साफ है कि सत्ता हथियाने की कवायद तालिबान के लिए ऐसी लूट साबित हुई है, जिसने उसे मालामाल करने के बजाय अफगानिस्तान को कंगाल बना दिया है। ऐसे में देश चलाने के लिए जरूरी वित्तीय संसाधनों की पूर्ति के साथ ही तालिबान को राजनीतिक स्थिरता के मोर्चे पर भी काफी पसीना बहाना होगा। लेकिन इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता की जरूरत पड़ेगी, जिसमें तालिबान का कट्टर और रूढ़िवादी अतीत आड़े आ रहा है। शायद इन्हीं परिस्थितियों को भांपते हुए तालिबान इस बार उदारवाद का चोला ओढ़कर दुनिया के सामने आया है, और बार-बार अपनी सोच में बदलाव का दावा कर रहा है।
                      

उपेन्द्र राय


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