भारत ने तोड़ा चीन का तिलिस्म

Last Updated 14 Feb 2021 12:02:26 AM IST

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की लिखी यह कविता घर-घर में बच्चों को अक्सर विपरीत हालात में भी पूरी ताकत से संघर्ष की प्रेरणा देने के काम आती है।


भारत ने तोड़ा चीन का तिलिस्म

कभी-कभी इसकी जरूरत बड़ों को भी पड़ती है और शाब्दिक अथरे में न सही, लेकिन लाक्षणिक अथरे में कुछेक मौकों पर तो देश का समूचा तंत्र भी इस संकल्प से प्रेरित होता दिखता है। पूर्वी लद्दाख में चीन को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) की हद में पहुंचाने की सफलता भारतवर्ष के ऐसे ही संकल्प की ताजा मिसाल है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने देश की सबसे बड़ी पंचायत के माध्यम से देश को मौजूदा वक्त की यह सबसे बड़ी खुशखबरी दी।

रक्षा मंत्री ने संसद में जो कहा, उसका सार यह निकलता है कि पैंगोंग सो के उत्तरी तट पर चीन अपनी सेना को फिंगर 8 की पूर्व दिशा में रखेगा, जबकि भारत फिंगर 3 के पास अपनी सैन्य मौजूदगी रखेगा। दोनों पक्ष इसी तरह की कार्रवाई दक्षिणी तट पर भी करेंगे। यथास्थिति बहाल करने के लिए इस क्षेत्र में अप्रैल 2020 के बाद हुए किसी भी तरह के निर्माण को हटा दिया जाएगा।

बेशक इस समझौते के बाद फिंगर 8 तक हमारी गश्त रुक जाएगी, लेकिन फिंगर 4 तक चीन की बेरोकटोक आवाजाही पर भी लगाम लगेगी और वो फिंगर 8 से आगे नहीं बढ़ सकेगा। मौजूदा हालात में यह भारत के लिए बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि अप्रैल 2020 में भी ऐसे हालात नहीं थे। चीनी सैनिक पिछले साल मई में फिंगर 4 के रिज एरिया में आकर बैठ गए थे। चीन ने यह हिमाकत पैंगोंग के दक्षिण से उत्तर में आने-जाने के लंबे सफर को आसान करने के लिए की थी। तब चीन को यह लगा होगा कि दो-चार महीने में जब दोनों देश पीछे हटेंगे, तो सलामी स्लाइसिंग वाली उसकी यह स्ट्रैटेजी काम कर जाएगी और वो अपनी हड़प चाल में कामयाब हो जाएगा। सलामी स्लाइसिंग रणनीति के तहत चीन दूसरे देशों की सीमाओं में इंच-दर-इंच विस्तार करता है और फिर उसे अपना कहना शुरू कर देता है। जो देश नरम पड़ता है, वहां चीन अपना विस्तार कायम कर लेता है, लेकिन भारत के साथ चीन का यह दांव उल्टा पड़ गया। सेना के जांबाज जवानों ने दो महीनों में ही फिंगर 4 की ऊंची चोटियों पर पहुंचकर पासा पलट दिया और चीन को उसी की भाषा में जवाब देकर दुनिया को चीन से निपटने का रास्ता भी दिखा दिया। मोर्चे पर जो पक्ष ऊंचाई पर मौजूद होता है, रणनीतिक फायदा उसके साथ होता है और भारत की यही ताकत चीन की कमजोर नस बन गई।

पैंगोंग में चीन जिस तरह कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर हुआ है, उसने गलवान की यादें ताजा कर दी हैं। 15 जून को भारतीय सेना से हिंसक झड़प के बाद पीएलए को अपने स्थायी बेस पर लौटना पड़ा था और पैट्रोलिंग प्रोटोकॉल बनने तक गश्त रोकने की सहमति देनी पड़ी थी।

यकीनन इस कामयाबी का बड़ा श्रेय हमारे जवानों को जाता है, जिन्होंने हड्डियां गला देने वाली ठंड में भी तिरंगे की शान बढ़ाकर चीनी राष्ट्रपति जिनिपंग के उस घमंड को भी तोड़ दिया कि भारतीय सेना बर्फीली ऊंचाइयों पर चीन का सामना नहीं कर सकती। जवानों ने इसी के साथ चीन को यह संदेश भी दे दिया कि समस्या का समाधान सिर्फ  और सिर्फ  उसके पीछे हटने से ही होगा। जवानों के इस हौसले को मोदी सरकार की विदेश और सैन्य नीति के दूरदर्शी प्रयासों ने भी परवान चढ़ाया। इस डिसएंगेजमेंट तक पहुंचने के लिए दोनों स्तरों पर सितम्बर 2020 से बातचीत के कई दौर हुए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से निर्देश लेते हुए एनएसए अजीत डोवाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर के बीच भी पर्दे के पीछे कई बार बातचीत हुई। सदन में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी इस पर औपचारिक मुहर लगाते हुए कहा कि बातचीत की रणनीति और दृष्टिकोण प्रधानमंत्री के इस दृढ़ संकल्प पर आधारित रहा कि भारत अपनी एक इंच जमीन भी किसी और को नहीं लेने देगा।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी की आउट ऑफ द बॉक्स सोच ने भी चीन पर नकेल डालने में बड़ी भूमिका निभाई है। बदलती वैश्विक व्यवस्था के साथ संतुलन बनाने की उनकी रणनीति, देश की सामरिक स्वायत्तता को प्रभावित किए बगैर महाशक्तियों से तालमेल, अमेरिका-रूस-ईरान की मुश्किल जियो पॉलिटिक्स के बीच सामंजस्य, इस्रइल और खाड़ी के देशों के साथ मधुर संबंध और कोरोना से लड़ाई में भारत के कद में जबर्दस्त इजाफे जैसी कई बातें हैं, जिनके कारण एक पड़ोसी के रूप में चीन लगातार दबाव में आता गया।

वैश्विक स्तर पर हो रही घेराबंदी ने इस दबाव को चौतरफा बना दिया। लद्दाख में भारतीय जवानों का शौर्य दुनिया के लिए मिसाल बन गया है और अब ताइवान भी चीन को आंख दिखा रहा है। दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी युद्धपोत ने भी ताइवान के समर्थन में युद्धाभ्यास कर चीन को आने वाले दिनों की चुनौती का इशारा कर दिया है। इससे डोनाल्ड ट्रंप के जाने के बाद अमेरिका से संबंध सुधरने की चीन की उम्मीद भी धराशायी हो गई है। उल्टे जो बाइडेन ने दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी युद्धपोत की संख्या बढ़ाकर चीन को सख्त संदेश दे दिया है। तनाव कम करने के लिए चीन अब अमेरिका से व्यापार के मोर्चे पर हालात सुधारने की बात करने लगा है, लेकिन यहां भी बाइडेन ने भारत को अपना साझेदार बताकर चीन को आईना दिखा दिया है। अमेरिका वैसे भी चीन को भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार के ओहदे से बेदखल कर चुका है। चीन के सालाना 2.5 खरब डॉलर के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज तीन फीसद रह गई है, लेकिन अब भी दोनों देशों के बीच 81.87 अरब डॉलर का कारोबार होता है और चीनी सामान के तमाम विरोध के बावजूद भारत आज भी अपने कुल मैन्युफैक्चरिंग का 20 फीसद चीन से आयात करता है। इसीलिए एलएसी के ताजा घटनाक्रम में भारत के साथ चीन के कारोबारी रिश्तों का एंगल भी खारिज नहीं किया जा सकता।

जो बात सबसे ज्यादा गौर करने वाली है, वो यह है कि यह डिसएंगेजमेंट एक लंबी प्रक्रिया की शुरु आत भर है। पैंगोंग का हल निकालने के बाद अभी हमें देपसांग का मसला भी सुलझाना है, जो सामरिक दृष्टि से ज्यादा अहम इलाका है। यहां दौलत बेग ओल्डी इलाके में चीन की घुसपैठ हमारे लिए चिंताजनक है। इस इलाके के एक तरफ चीन है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान। यहां भारत ने 255 किलोमीटर लंबी दारबुक-श्योक-डीबीओ रोड बनाई है, जो केवल दौलत बेग ओल्डी को काराकोरम से ही नहीं जोड़ती, चीन के ‘वन बेल्ट, वन रोड मिशन’ की चौकस निगरानी के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है। हालांकि इतना तय है कि पैंगोंग की कामयाबी ने जहां एक ओर हमारी सेना और हमारी सरकार की विसनीयता को बढ़ाया है, वहीं इसने चीन को भी दबाव में ला दिया है। चार साल पहले डोकलाम, फिर गलवान और अब पैंगोंग सो के अनुभव के बाद इस मोर्चे पर सोच-समझकर चलना चीन की मजबूरी ही नहीं, समझदारी भी होगी।

उपेन्द्र राय


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