दरकते पहाड़, टूटते ग्लेशियर क्यों बरपा कुदरत का कहर?

Last Updated 13 Feb 2021 05:05:03 AM IST

भारत अपने पहले बांध-विरोधी आंदोलन की सौवीं वषर्गांठ मना रहा है। 1920 के दशक में हुआ यह आंदोलन पश्चिमी महाराष्ट्र में मुला-मुठा नदी के संगम पर बन रहे मुलशी बांध के खिलाफ था, जिसे बनाने का करार एक निजी कंपनी के साथ हुआ था। तमाम विरोध के बावजूद यह कंपनी बांध बनाने में कामयाब हो गई थी। इस आंदोलन के बाद भी ऐसे सैकड़ों मौके आए, जब देश में बांध बनाने का विरोध हुआ कुछ सफल हुए, लेकिन ज्यादातर नाकाम ही रहे। सौ साल बाद देश में बांधों को लेकर विरोधी स्वर एक बार फिर मुखर हो रहे हैं।


दरकते पहाड़, टूटते ग्लेशियर क्यों बरपा कुदरत का कहर?

ताजा प्रसंग चमोली में हुए दर्दनाक हादसे का है। चमोली उस चिपको आंदोलन की जन्मभूमि भी है, जिसे पांच दशक बाद दुनिया आज के दौर में भी कुदरत को बचाने की नायाब मुहिम के तौर पर सलाम करती है। उसी चमोली का नाम एक बार फिर दुनिया की जुबां पर है, लेकिन ठीक उल्टी वजह से। बीते रविवार को यहां बरपे कुदरत के कहर की तस्वीरें भले ही सात दिन पुरानी पड़ गई हों, लेकिन हादसे की असल वजह अब भी राज बनी हुई है। एक ज्यादा प्रचलित थ्योरी इसके लिए ग्लेशियर टूटने को जिम्मेदार बता रही है, जबकि दूसरी थ्योरी भूस्खलन को बता रही है। लेकिन पहाड़ों को ओढ़ने-बिछोने वाले एक बात पूरे यकीन से कह रहे हैं कि त्रासदी भले ही प्राकृतिक हो, लेकिन मानव दखल ने इसे भयावह बनाने का काम किया है।

तबाही के मंजर को सिलसिलेवार जोड़ कर देखें, तो यह यकीन सच के करीब दिखाई देता है। हादसे का केंद्र बनी ऋषि गंगा पनबिजली परियोजना चमोली के रैणी गांव से संचालित होती है। यही इसका कैचमेंट एरिया है, जो गंगा की पांच प्रारंभिक सहायक नदियों में से एक धौली गंगा से जुड़ता है। शुरु आती रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ों पर से पहले हिमस्खलन हुआ या भूस्खलन जिससे ग्लेशियर टूटा। टूटा ग्लेशियर तेज रफ्तार से नीचे उतरा और पहाड़ से मिले मलबे को समेटते हुए परियोजना के लिए बने बांध पर कहर बन कर टूटा। रैणी गांव में तबाही मचाने के बाद यह सैलाब नीचे चल रहे तपोवन प्रोजेक्ट की टनल में भी घुस गया। जिस बांध का काम पानी को बांधने का था, वही उसे फैलाने का जरिया बन गया यानी भले ही इस घटना की ‘पैदाइश’ कुदरती हो, इसे तबाही की शक्ल पहाड़ों की नदियों से बिजली बनाने के लिए बने बांध ने दी। बहरहाल, अभी स्थिति यह है कि इस हादसे से ऋषि गंगा और परियोजनाएं तो पूरी तरह ध्वस्त हो गई हैं, और एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना से विद्युत उत्पादन बाधित हुआ है।

हादसे के बाद पैदा हो रहे कई सवाल
अब जब हादसा हो गया है, तो कई सवाल भी पैदा हो रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में चल रही विकास परियोजनाओं से लेकर बढ़ रहीं मानव गतिविधियां, सब कटघरे में हैं। सात साल पहले केदारनाथ में हुई तबाही को याद भी किया जा रहा है, और उसके बाद भी जारी प्रकृति से छेड़छाड़ की साजिश का बही-खाता बहस का विषय बना हुआ है। सवाल उठ रहे हैं कि हिमस्खलन और भूस्खलन के खतरे को जानते-समझते हुए भी ऐसी जगह पर पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी कैसे दे दी गई? कुछ सवाल खालिस सियासी हैं, तो कुछ प्रशासनिक भूलभुलैया से जुड़े हैं, लेकिन कई सवालों में पहाड़ों, नदियों और वनों जैसी कुदरती धरोहरों की अपूरणीय क्षति की चिंता और जान-माल के स्थायी नुकसान का डर भी है, जो वाजिब भी दिखता है।

चमोली में फरवरी के महीने में ग्लेशियर का टूटना आखिर, किस बात का इशारा है? दुनिया भर के वैज्ञानिक इसे खतरे की घंटी मान रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसकी एक वजह जलवायु परिवर्तन को माना है। क्लाइमेट चेंज पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट का अनुमान है कि बढ़ते तापमान की वजह से हिंदुकुश हिमालय में बर्फबारी के दौरान भी बदलाव दिख रहे हैं, जो इस क्षेत्र में मौजूद पांच हजार से भी ज्यादा ग्लेशियर को और खतरनाक बना सकते हैं। पिछले साल ही काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डवलपमेंट ने भी अंदेशा जताया था कि साल 2100 तक बढ़ते तापमान की वजह से हिमालय के 90 फीसद ग्लेशियर पिघल सकते हैं, और इससे होने वाली तबाही के आकलन में समय जाया करने से बेहतर होगा कि हम इस चुनौती को टालने के लिए ऐहतियाती कदम उठाने में युद्ध स्तर पर जुट जाएं।

लेकिन ऐहतियात किस स्तर तक बरती जाएं, यह भी बहस का विषय है। एक पक्ष जिसे विकास कहता है, दूसरा उसे विनाश बताता है। यह पक्ष पहाड़ी क्षेत्रों में वन काट कर हो रहे निर्माण की तुलना कंक्रीट के उग रहे नये जंगलों से करता है। सबसे ज्यादा निशाने पर आते हैं इन क्षेत्रों में बन रहे बांध। बांध समर्थक दलील देते हैं कि इससे उन क्षेत्रों में पानी पहुंचाना संभव होता है, जहां उसकी प्राकृतिक उपलब्धता सीमित है। दूसरा फायदा इससे होने वाले बिजली उत्पादन का है, जो दुर्गम क्षेत्रों में आर्थिक स्वावलंबन और स्थानीय रोजगार को बढ़ावा देने में सहायक साबित होता है। ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट के जरिए भी बिजली को दिल्ली और हरियाणा तक सप्लाई करने का दावा किया गया था।

लेकिन बांध इतने जरूरी होते हैं, तो इनका विरोध क्यों होता है? पिछले कुछ साल में हिमालय क्षेत्र की ज्यादातर त्रासदियों के लिए यहां चल रही पनबिजली परियोजनाओं के लिए बने बांधों को ही जवाबदेह ठहराया गया है। केदारनाथ हादसे के बाद बनी रवि चोपड़ा कमेटी ने भी कहा था कि अगर चौराबाड़ी ग्लेशियर से निकले मलबे को वहां चल रही तीन बड़ी पनबिजली परियोजनाओं ने नहीं रोका होता, तो त्रासदी होती ही नहीं। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि ऋषि गंगा और तपोवन-विष्णुगाड़ प्रोजेक्ट के बैराज भी ग्लेशियर की राह का रोड़ा नहीं बनते, तो इस बार भी मलबा बिना कोई नुकसान पहुंचाए सीधे गंगासागर तक निकल जाता।

विकास और विनाश के बीच लकीर पहचानें

हकीकत क्या है, इस बारे में अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन एक बात सब मान रहे हैं कि विकास और विनाश के बीच की लकीर की सही पहचान अब जरूरी हो गई है। विकास के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ की सीमा तय हो, साथ ही इस बात का ध्यान रखा जाए कि व्यावहारिक विकास भी पर्यावरण अतिवाद की भेंट न चढ़ जाए। इसे रवि चोपड़ा कमेटी के सामने रखे गए सुप्रीम कोर्ट के तीन सवालों में से एक सवाल के जरिए बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। सवाल साल 2012 में अलकनंदा और भागीरथी बेसिन पर 24 बांधों के प्रस्ताव को रद्द करने की वाइल्ड लाइफ इंस्टीटय़ूट की सिफारिश से जुड़ा था और कोर्ट ने कमेटी से इस बाबत उसकी राय जाननी चाही थी। तमाम शोध के बाद कमेटी ने जवाब दिया कि 23 बांधों को तो पूरी तरह रद्द कर देना चाहिए, लेकिन एक बांध की डिजाइन को स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप बनाकर निर्माण की अनुमति दी जा सकती है।

यह सलाह दरअसल, समूचे हिमालयी क्षेत्र के लिए लाइफलाइन का काम कर सकती है। हिमालय सबसे नया पर्वत ही नहीं, पर्यावरण के लिहाज से सबसे संवेदनशील पर्वत भी है। इसलिए यहां की पारिस्थितिकी में बदलाव को लेकर नजरिया भी संवेदनशील रखना होगा। ऐसा कोई भी निर्माण जो इसे प्रदूषित कर सकता हो, यहां की जलवायु में बदलाव लाएगा जो ग्लेशियर पिघलने, भारी बारिश और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ावा देगा। चमोली हादसे के करीब सात दिन बाद भी इसकी सही वजह की अधूरी तलाश बताती है कि इस क्षेत्र में हमारी मॉनिटरिंग की तैयारियां भी अधूरी हैं। हिमालयी क्षेत्र में पांच हजार से ज्यादा छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं, और यह जानकारी चौंकाती है कि इनमें से केवल उत्तराखंड के पांच और लद्दाख के एक ग्लेशियर की ही नियमित मॉनिटरिंग हो रही है। जाहिर है मॉनिटरिंग के लिए संसाधन बढ़ाने की जरूरत है, ताकि पहाड़ों में हो रहा छोटे-से-छोटा बदलाव भी हमारी नजरों से ना चूके।

बड़े बांध विकास और रोजगार के अहम स्त्रोत हैं, लेकिन अगर वो पहाड़ों को खोखला कर रहे हैं, तो उनकी जगह छोटे-छोटे बांधों को प्राथमिकता दी जा सकती है। संवेदनशील क्षेत्रों को सहेजने के लिए विकल्प के रूप में सौर ऊर्जा को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। पनबिजली परियोजनाओं के लिए पर्यावरण अध्ययन रिपोर्ट तैयार की जाती है, जिसमें बांध प्रभावितों की राय अहम होती है। जरूरी है कि ऐसी जनसुनवाई आर्थिक मुआवजे से आगे बढ़कर संबंधित क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक और पर्यावरण से जुड़ी खूबियों को सहेजने का मंच बनें। गौर करने वाली बात यह है कि पहाड़ों को बचाने की जिम्मेदारी केवल यहां रहने वाले लोगों और सरकार की ही नहीं है। जिस तरह हिमालय देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है, उसी तरह इसकी सुरक्षा हर देशवासी के लिए जरूरी है। किसी अगले ‘चमोली’ का इंतजार किए बिना हम जितनी जल्दी इसकी शुरु आत करेंगे, उतना बेहतर होगा।

उपेन्द्र राय


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