कांटों भरा ताज
अमेरिका में निजाम बदल चुका है और कमान अब जो बाइडेन के हाथों में है, जो संयोगवश अमेरिकी इतिहास के सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति भी हैं। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के लिए यह आसमान से आई सौगात हो सकती है, क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने पीछे अमेरिका को जिस ‘दलदल’ में छोड़ कर गए हैं, उससे बाहर निकलना अनुभव के बूते ही संभव हो पाएगा।
![]() अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन |
बाइडेन यह लक्ष्य हासिल कर पाएंगे या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा लेकिन वो इस दिशा में आगे कैसे बढ़ेंगे, इसके लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। बाइडेन के चुनावी अभियान का नारा था ‘बिल्ड बैक बेटर’ यानी फिर से बनेंगे बेहतर। यह स्पष्ट तौर पर केवल कोरोना महामारी को नियंत्रित करने, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने और सुनियोजित तरीके से रंगभेद और आर्थिक असमानता में बांट दिए गए अमेरिकी समाज को फिर से साथ लाने भर का स्लोगन नहीं था, बल्कि इसमें पिछले कुछ वर्षो में लैटिन अमेरिका से लेकर पूर्वी अफ्रीका तक और परमाणु शक्ति संपन्न उत्तरी कोरिया और ईरान जैसे देशों से लेकर विद्रोही क्षेत्रीय ताकतों से पार पाने की चुनौती भी शामिल है।
चौतरफा चुनौतियों के बीच बाइडेन की वरीयता में पहला नम्बर शायद चीन का ही होगा, जो आज अमेरिकी बादशाहत के लिए सबसे गंभीर चुनौती बन चुका है। ट्रंप प्रशासन ने भी चीन को दीर्घकालीन अवधि के लिए अमेरिका का सबसे बड़ा खतरा माना था। ट्रंप की सख्त नीतियों से चार साल में दोनों देशों के संबंधों में ऐतिहासिक गिरावट आ चुकी है। दोनों देशों के विशेषज्ञ अभी इस बात पर एकमत नहीं हो पा रहे हैं कि जो बाइडेन भी डोनाल्ड ट्रंप वाली सख्त रणनीति अपनाएंगे या फिर वॉशिंगटन और बीजिंग के रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित करने की राह पर आगे बढ़ेंगे।
चीन
ओबामा शासन में उप-राष्ट्रपति रहते हुए बाइडेन ने बयान दिया था कि अगर चीन और अमेरिका अपने संबंधों को ठीक से निभाने में कामयाब हो जाते हैं, तो दोनों देशों में विकास की संभावनाएं अनंत हो सकती हैं। बाइडेन के इस बयान को ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में चीन से नजदीकी बताकर भुनाना चाहा, लेकिन यह चाल कामयाब नहीं हो सकी क्योंकि विपक्ष में रहते हुए बाइडेन ऐसे पर्याप्त सबूत दे चुके थे जो बताते हैं कि चीन को लेकर उनकी सोच बदल चुकी है, और वो उसे अमेरिका का पार्टनर नहीं, बल्कि प्रतिद्वंद्वी समझते हैं। तब से अब तक बाइडेन चीन को कई मौकों पर लताड़ चुके हैं। वो चीनी राष्ट्रपति शी जिनिपंग को ‘ठग’ बता चुके हैं, और बीजिंग को मनमर्जी से बाज नहीं आने पर नतीजा भुगतने की चेतावनी भी दे चुके हैं।
बाइडेन के हालिया बयानों से इशारा मिलता है कि वह आर्थिक नीतियों, खासकर ट्रेड वॉर को लेकर वो ट्रंप प्रशासन की तरह ही सख्त रुख अपनाएंगे, लेकिन अपने तरीके से। बाइडेन का मानना है कि व्यापार शुल्क के दांव से चीन को घेरने का तरीका काम नहीं करेगा, क्योंकि आखिरकार इससे अमेरिका भी प्रभावित हो रहा है। सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था को मिल रही चुनौती के बीच बाइडेन चीन से सीधे टकराव के बजाय एक बड़े वैश्विक गठबंधन के समर्थन में हैं, जिससे चीन को अपनी अर्थव्यवस्था खोलने के लिए मजबूर किया जा सके।
दक्षिण चीन सागर और ताइवान को लेकर भी बाइडेन की नीतियों में ट्रंप प्रशासन की तुलना में ज्यादा सख्ती दिख सकती है। राष्ट्रपति के तौर पर ट्रंप ने उइगर मुसलमानों से चीन के व्यवहार को नरसंहार घोषित करने का जो आखिरी ऐलान किया, वो भी दरअसल, बाइडेन के दबाव का ही नतीजा माना जा रहा है। चीन को लेकर बाइडेन प्रशासन का रवैया भारत के लिए चुनौती और अवसर, दोनों हो सकता है। बाइडेन कई बार चीन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के संदर्भ में भारत की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बता चुके हैं। इसके लिए वो दोनों देशों के लोकतंत्र और साझा मूल्यों का भी हवाला देते रहे हैं। बाइडेन की राष्ट्रपति पद की औपचारिक शपथ के तुरंत बाद आया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बधाई संदेश भी इन्हीं भावों का विस्तार दिखता है।
भारत
वैसे भी बाइडेन भारत के लिए नये नहीं हैं। बराक ओबामा के कार्यकाल में उप-राष्ट्रपति के तौर पर वो कई मौकों पर भारत के पक्ष में मजबूती से खड़े दिखे थे। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का अधिकृत समर्थन करने से लेकर 2008 में भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील के पक्ष में माहौल बनाने में बाइडेन का अहम किरदार रहा था। कहा जाता है कि बाइडेन की पहल पर ही अमेरिका ने भारत को अपना प्रमुख रक्षा साझेदार बनाकर किसी देश को पहली बार यह दरजा दिया था। अब बतौर राष्ट्रपति उनकी नई टीम में भी 20 भारतवंशी अहम ओहदों पर नियुक्त किए गए हैं।
बाइडेन की चुनावी दावेदारी के समय से ही उनका एक पुराना बयान भारत में चर्चा का विषय बना हुआ है। यह बयान दिसम्बर, 2006 में ‘रेडिफ इंडिया अब्रॉड’ को दिए गए एक लंबे इंटरव्यू का हिस्सा है, जिसमें बाइडेन ने कहा था कि उनका सपना है कि भारत और अमेरिका 2020 में दुनिया के सबसे नजदीकी दो राष्ट्र बनें। सामरिक, आर्थिक और कूटनीति, तीनों मोचरे पर पिछले 14 साल में काफी तरक्की हुई है। ज्यादातर मामलों पर दोनों देश साथ मिलकर आगे बढ़े हैं, लेकिन कुछ मसले ऐसे भी हैं जिनमें राजनीतिक परिपक्वता नहीं दिखाई गई तो रिश्तों की गर्माहट प्रभावित हो सकती है।
बाइडेन ने अपने चुनाव प्रचार में कश्मीर को लेकर कहा था कि असहमति जताने पर रोक और इंटरनेट पर पाबंदी लगाना लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा है। असम में एनआरसी को भी बाइडेन ने भारत की बहुजातीय और बहुधार्मिंक लोकतंत्र की परंपरा के विपरीत बताया था। सीएए पर अब उप-राष्ट्रपति बन चुकीं कमला हैरिस और प्रमिला जयपाल जैसी प्रगतिशील डेमोक्रेट सांसदों का आलोचनात्मक रवैया भी केंद्र सरकार को रास नहीं आया था। हालांकि अच्छी बात यह है कि बाइडेन भारत से रिश्तों के महत्त्व को समझते हैं और उन्होंने इन मतभेदों को संवाद के जरिए दूर करने की बात कही है। फिर बाइडेन यह कैसे भूल सकते हैं कि खुद उनका देश इन आरोपों से ऊपर नहीं है। भले ही वो ट्रंप को इसका कसूरवार ठहराएं, लेकिन लोकतंत्र हो या मानव मूल्य, दोनों से खिलवाड़ अब अमेरिका की पहचान बन गए हैं।
घरेलू मोर्चा
ट्रंप के शासनकाल की कुछ घटनाओं को देखकर यह कहना कि अमेरिकी समाज पूरी तरह बंट चुका है, समस्या को कमतर करके पेश किए जाने जैसा लगने लगा है। ग्रामीण और शहरी समाज के बीच विभाजक रेखा स्पष्ट दिखती है, श्वेत-अश्वेत दो अलग-अलग छोर पर खड़े हैं, प्रवासी शक की निगाहों से देखे जा रहे हैं और शिक्षित-अशिक्षित तबका भी अपने-अपने ‘हिसाब’ की विचारधारा में बंट गया है। अपने पूरे कार्यकाल के दौरान ट्रंप अमेरिका और मैक्सिको के बीच दीवार तो नहीं खड़ी कर पाए, लेकिन अपनी राजनीतिक अभद्रता और झूठे प्रचार से उन्होंने अमेरिकी लोगों के बीच संकीर्ण राष्ट्रवाद की दीवार जरूर खड़ी कर दी।
25 मई, 2020 को जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में ‘हत्या’ के बाद हुए प्रदर्शन में ट्रंप को जान बचाने के लिए व्हाइट हाउस के बंकर में छुपना पड़ा, तो 6 जनवरी, 2021 को कैपिटल हिल पर ‘घरेलू आतंकियों’ के हमले में निर्वाचित सांसदों को अपनी सलामती के लिए चोरी-छिपे संसद से भागना पड़ा था। ये दो वाकये, आज के अमेरिका का प्रतिनिधित्व कर रही उन सैकड़ों घटनाओं में शामिल हैं, जो बाइडेन को ट्रंप से विरासत में मिली है। ट्रंप ने देश में राष्ट्रपति के पद और दुनिया में अमेरिका के कद को जिस तरह गिराया, वैसी मिसाल दोबारा शायद ही मिले। इतिहास में ट्रंप शायद इसी बात से सबसे ज्यादा पहचाने जाएंगे कि वो दो बार महाभियोग झेलने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बने।
लेकिन जिस तरह वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता, उसी तरह जो चुनौतियां अमेरिका और दुनिया के सामने खड़ी हैं, वो भी किसी के आने-जाने से रुकने वाली नहीं हैं। घरेलू मसलों के साथ ही बाइडेन प्रशासन को विदेश नीति के मोर्चे पर भी नये सिरे से जंग लड़नी पड़ेगी यानी जो बाइडेन के पास फिलहाल अमेरिकी शान बढ़ाने वाले बड़े अभिनव बदलाव का वक्त नहीं है, अभी तो उन्हें देश की साख बचाने वाले ढेर सारे बुनियादी सुधार के कामों में ही जुटना होगा।
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