आत्मनिर्भरता ने बढ़ाई साख
महाभारत में नायक की परिकल्पना एक ऐसे विचार के रूप में की गई है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने संकल्प की दृढ़ता से मानवता के लक्ष्य को प्राप्त करने का माध्यम बनता है। कोरोना के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में भारत महाभारत के ऐसे ही नायक के रूप में प्रस्तुत हुआ है, जिसने महामारी पर विजय को अपना संकल्प बनाया और मानवता को इससे मुक्त करने के दृढ़ प्रयास किए।
आत्मनिर्भरता ने बढ़ाई साख |
वो भारत ही था जिसने सबसे पहले पूरी दुनिया को कोरोना के खिलाफ एकजुट होने की अहमियत समझाई, खुद कोरोना से जंग लड़ते हुए पड़ोसी देशों तक मदद पहुंचाई और फिर जरूरत पड़ने पर अमेरिका तक को जीवनरक्षक दवाइयां उपलब्ध करवाई। और अब जब लड़ाई वैक्सीन पर आई है, तब भी यह भारत ही है, जो वैश्विक उम्मीदों का अग्रदूत बना हुआ है।
ऑक्सफोर्ड कोविड-19 टीके को भारत में बना रहे सीरम इंस्टीटय़ूट ऑफ इंडिया की कोविशील्ड और भारत बायोटेक के स्वदेशी टीके को-वैक्सीन को डीसीजीआई यानी ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से सीमित आपात इस्तेमाल की मंजूरी मिल गई है। इस मंजूरी के मिलने से उस प्रक्रिया की बुनियाद भी पड़ गई है, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वि के सबसे बड़े टीकाकरण कार्यक्रम का नाम दिया है। आम तौर पर आपात इस्तेमाल की मंजूरी मिलने के 10 दिन बाद वैक्सीन का व्यापक पैमाने पर भी उपयोग शुरू हो जाता है, लेकिन फिलहाल वैक्सीन की कीमतें तय नहीं हुई हैं, इसलिए यह तारीख थोड़ा आगे खिसक सकती है।
बहरहाल, कोरोना के चुनौती काल में हमारे वैज्ञानिकों की इस सफलता ने एक बार फिर देश की वैश्विक साख बढ़ाई है। दोनों टीकों को लेकर दुनिया भर में भारत की तारीफ हो रही है। वि स्वास्थ्य संगठन ने महामारी के दौरान भारत की भूमिका की सराहना की है, और इससे लड़ने के लिए उठाए गए कदमों को निर्णायक बताया है। भारत की इस तारीफ में डब्ल्युएचओ ने जो सबसे बड़ी बात कही है, वो यह है कि दुनिया भर में कमजोर लोगों को बचाने के लिहाज से भारत की यह कामयाबी बेहद अहम है। भारत में लॉकडाउन लगाने पर भी डब्ल्युएचओ ने वायरस के जोखिम को समय पर पहचान कर कार्रवाई करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की थी यानी कोरोना के खिलाफ दुनिया जब-जब मुश्किल में पड़ी है, डब्ल्युएचओ की उम्मीदें भारत से ही जुड़ी हैं।
कामयाबी का डंका
लेकिन भारत की जिस कामयाबी का दुनिया में डंका बज रहा है, उस पर देश में ही सवाल भी उठे हैं। कुछ धार्मिंक और सियासी दलों ने वैक्सीन को ‘भाजपाई’ टीका बताने से लेकर इसमें पोर्क होने जैसी अनर्गल आलोचना की है। जिस टीके को डब्ल्युएचओ कमजोर देशों का कवच बता रहा है, विपक्षी दल आंकड़ों और परीक्षण की कमी जैसे आरोपों से टीकों के असर और उन्हें मंजूरी देने की प्रक्रिया को जल्दबाजी बताकर वैज्ञानिकों की मेहनत को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। वैसे यह भी हकीकत है कि भारत में बने टीकों का तीसरा ट्रायल अभी नहीं हुआ है। लेकिन अमेरिका और यूरोप में भी फिलहाल इसी प्रोटोकॉल का पालन हो रहा है, क्योंकि टीके को तमाम परीक्षणों से गुजरने और इस्तेमाल के लिए पूरी तरह से सुरक्षित घोषित होने में कई साल लग जाते हैं, जबकि ‘लाइलाज’ बने कोरोना का जल्द इलाज जरूरी है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि विपक्षी दलों को टीके या उससे जुड़े शोध पर सवाल करने का भी अधिकार नहीं है। लेकिन सवाल उठाते समय राजनीतिक दलों को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि संवेदनशील मुद्दों पर उनके गैर-जिम्मेदाराना बयान खुद उनकी विसनीयता को आपत्तिजनक ना बना दें। टीकों के नफे-नुकसान की बात तो तब आएगी, जब उनका इस्तेमाल शुरू होगा। फिलहाल तो जरूरी है कि देश एक होकर अपने वैज्ञानिकों की काबिलियत पर भरोसा रखे और इस काबिलियत को जमीन पर उतारने की कोशिशों में सरकार का हाथ बंटाए।
वैसे भी हमारी बड़ी आबादी को देखते हुए वैक्सीन के प्रभावी इस्तेमाल के लिए पल्स पोलियो अभियान जैसी व्यापक प्रक्रिया की जरूरत होगी। इस वक्त दुनिया के इस सबसे बड़े इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम की सफलता ही हमारी सबसे बड़ी प्रेरणा भी बन सकती है। इसलिए कोरोना टीकाकरण आसान भले न हो, लेकिन हम पल्स पोलियो अभियान जैसी कर्मशीलता दिखाएंगे, तो यह असंभव भी नहीं है। विशेषज्ञों की राय है कि वैक्सीन की उपलब्धता से ज्यादा जरूरी उसकी उपयुक्तता है। वैक्सीन को आपात इस्तेमाल की मंजूरी मिलने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने संबोधन में देश को इस बात की अहमियत समझाई थी। उनके मुताबिक किसी उत्पाद की गुणवत्ता उसकी मात्रा जितनी ही महत्त्वपूर्ण है, इसलिए हमें सुनिश्चित करना होगा कि वैक्सीन ही नहीं, हम जो भी उत्पाद बनाएं, उसकी ना केवल वैश्विक मांग हो, बल्कि वैश्विक स्वीकार्यता भी हो। इसका सरल अनुवाद यह हो सकता है कि आत्मनिर्भरता की मंजिल तक पहुंचने के लिए हमारे मानक भी ऊंचे होने चाहिए।
वैक्सीन की कीमत
टीकाकरण की सफलता बहुत कुछ वैक्सीन की कीमत पर भी निर्भर होगी। टीका अगर मुफ्त नहीं मिल रहा है, तो इसकी कीमतें कम-से-कम ऐसी होनी चाहिए जो देश के सभी आय वर्ग की पहुंच के अंदर हों। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी की एक आवाज पर लोग रसोई गैस पर सब्सिडी छोड़ने को तैयार हो गए थे, उसी तरह की रणनीति वैक्सीनेशन कार्यक्रम में भी आजमाई जा सकती है। अगले कुछ महीनों तक वैक्सीन की सीमित उपलब्धता को देखते हुए जो सक्षम हैं, वो निजी सेक्टर में खुद के खर्चे पर वैक्सीन लगवा सकते हैं ताकि सरकार पर भी भार कम हो और जरूरतमंद वंचित लोगों का शत-प्रतिशत न सही, ज्यादा से ज्यादा वैक्सीनेशन हो जाए। वैक्सीन पर चल रही सियासत के बीच अगर टीकाकरण के शुरु आती नतीजे ज्यादा प्रभावी नहीं होते हैं, तो देश में इसकी सार्थकता को लेकर भ्रम न फैले इसके लिए कम-से-कम सरकार को अभी से जागरूकता कार्यक्रम की शुरुआत कर देनी चाहिए। साथ ही साथ इसके विकल्पों पर भी देशवासियों को अभी से अपडेट करते रहना होगा। यह भविष्य के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है।
अब तक भारत की ख्याति दुनिया में जेनिरक दवाओं और वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादक के तौर पर थी। पिछला अनुभव है कि किसी भी नये वायरस के लिए वैक्सीन तैयार करने में कम-से-कम 18 से 20 महीने लग जाते हैं। लेकिन कोरोना वायरस के लिए 12 महीने से भी कम समय में वैक्सीन तैयार कर भारतीय वैज्ञानिकों ने एक बार फिर दुनिया को अपना मेधा की ताकत का अहसास करवाया है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भविष्य की शोध परियोजनाओं में यह कामयाबी मील का पत्थर साबित होगी। हमारे वैज्ञानिक तो अपने भरोसे पर खरे उतरे ही हैं, अब हमारी बारी है। टीकाकरण कोरोना के खिलाफ हमारे पास उपलब्ध सबसे मजबूत विकल्प है। इसलिए सरकार पर भरोसा रखते हुए टीकाकरण कार्यक्रम को आगे ले जाने के लिए हर देशवासी को ‘सारथी’ की भूमिका निभानी होगी। जब देश ने कोरोना के खिलाफ जंग शुरू की थी, तब प्रधानमंत्री ने महाभारत का स्मरण कराते हुए कहा था कि उस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण सारथी थे, आज 130 करोड़ महारथियों के बूते हमें कोरोना से लड़ाई जीतनी है। ऐसे में प्रधानमंत्री की एक साल पहले कही गई बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
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