‘दाग’ अच्छे नहीं हैं

Last Updated 03 Jan 2021 12:01:08 AM IST

अमेरिका के राष्ट्रपति पद से डोनाल्ड ट्रंप की औपचारिक विदाई चार साल के उनके कार्यकाल की तरह ही विवादित साबित हो रही है।




‘दाग’ अच्छे नहीं हैं

अमेरिका में परंपरागत रूप से 20 जनवरी को सत्ता हस्तांतरण होता है और उससे ऐन पहले ट्रंप के साथ एक और बखेड़ा जुड़ गया है। अमेरिकी कांग्रेस ने रक्षा खर्च फंड पर ट्रंप के वीटो को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए खारिज कर दिया है। ट्रंप के शासनकाल में ऐसा पहली बार हुआ है, उनके पिछले आठों वीटो प्रभावी रहे थे। अमेरिकी सीनेट ने 81-13 यानी राष्ट्रपति के वीटो को खारिज करने के लिए जरूरी दो तिहाई बहुमत से भी ज्यादा ताकत से ट्रंप का विरोध किया है।

नवम्बर के पहले हफ्ते में राष्ट्पति चुनाव में हार के बाद भी अमेरिका कई अवसरों पर ट्रंप को खारिज कर चुका है, लेकिन ट्रंप पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं कि व्हाइट हाउस की गद्दी पर जमे रहने के लिए आए-दिन कोई-न-कोई नया पैंतरा आजमा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में अपील खारिज होने और इलेक्टोरल कॉलेज में नये राष्ट्रपति जो बाइडेन के पक्ष में बहुमत आने के बाद दुनिया भले ही चैन की सांस ले रही हो, लेकिन अमेरिका अभी भी अपने भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं दिख रहा है।  

राष्ट्रपति पद ‘हड़पने’ के ट्रंप के दांव भले ही एक-के-बाद-एक नाकाम होते जा रहे हों, लेकिन दांव-पेच के इस खेल से अमेरिकन जनता के एक वर्ग के साथ ही रिपब्लिकन पार्टी पर ट्रंप ने अपना कब्जा जमा लिया है। समर्थकों के इस समूह के लिए तीन नवम्बर को चुनावी हार के बाद से उनकी उपलब्धियां बेहद ‘प्रभावशाली’ हैं। इलेक्शन डिफेंस फंड के नाम पर ट्रंप ने रिपब्लिकन समर्थकों से 170 मिलियन डॉलर से ज्यादा का चंदा हासिल कर लिया है। वो रिपब्लिकन पार्टी पर अपने दबदबे को साबित करने का कोई मौका नहीं गंवा रहे हैं। ज्यादातर रिपब्लिकन अभी भी चुनाव में हेराफेरी के उनके प्रोपेगैंडा का समर्थन कर रहे हैं। जो बच गए हैं, उन्होंने हैरान करने वाली खामोशी ओढ़ रखी है। कल तक जो रिपब्लिकन नेता व्हाइट हाउस में उनके अक्खड़पन को खाद-पानी देते थे, वही अब उनकी डेमोक्रेट-विरोधी भावनाओं को हवा देने का काम कर रहे हैं। वॉशिंगटन पोस्ट का ताजा सर्वे बताता है कि हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स और सीनेट के लिए चुने गए कुल 249 रिपब्लिकन सांसदों में से अब तक केवल 29 ने बाइडेन की जीत को मान्यता दी है, 220 को अब भी ट्रंप की स्टोरी में नाटकीय क्लाइमेक्स का यकीन है।

हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि जैसे-जैसे 20 जनवरी की तारीख करीब आ रही है, वैसे-वैसे आम अमेरिकी किसी अनजाने डर की गिरफ्त में जाता दिख रहा है। ज्यादातर अमेरिकियों को अंदेशा है कि इस तारीख के आसपास ट्रंप समर्थक अमेरिका में बड़े पैमाने पर हिंसा कर सकते हैं। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कुछ चुनाव अधिकारियों को जान से मारने की धमकियां मिल रहीं थीं। कुछ दिन पहले ही ट्रंप के कथित हथियारबंद समर्थकों ने मिशिगन के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का घर घेर लिया था। ट्रंप को राष्ट्रपति बनाए रखने के लिए एरिजोना में रिपब्लिकन पार्टी अपने समर्थकों को खुलेआम खुदकुशी के रास्ते पर जाने के लिए उकसा रही है। डर की एक बड़ी वजह ट्रंप का हालिया बयान भी है, जिसमें उन्होंने 2024 में दोबारा चुनाव लड़ने की बात कही है। अमेरिका का दक्षिणपंथी मीडिया-जिनमें ऐसे कई बड़े समाचार चैनल शामिल हैं, जिन्होंने ट्रंप प्रशासन में अपनी कमाई में कई गुना इजाफा किया है; इन सारे प्रयासों को नैतिकता का अमलीजामा पहनाने में जुटा है।

शह-मात के इस खेल में विजेता की छवि भले स्पष्ट हो चुकी हो, लेकिन ट्रंप की हठधर्मिंता से अमेरिका को बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है। कोरोना महामारी से निपटने में उनकी अपरिपक्वता ने पहले अर्थव्यवस्था को चौपट किया और अब चुनावी हार के बाद उनकी बचकाना हरकतों ने लोकतांत्रिक मूल्यों के सबसे बड़े पुरोधा होने की अमेरिका की पहचान को तार-तार कर दिया है। इस सबके बीच सत्ता बचाने के लिए छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर ट्रंप ने जिस तरह अपने देश को बांटने का काम किया, उसने अमेरिका की मशहूर आजाद ख्याली की विरासत को भी दागदार बना दिया।

अमेरिका में चल रही इस उठापटक में चीन सबसे बड़ा लाभार्थी बनकर उभरा है। कोरोना महामारी के उदय से पहले ही चीन अमेरिका के रुतबे को अस्त करने पर उतारू था। बेशक 1776 से 1990 के दशक के मध्य तक अमेरिका ने दुनिया पर एकतरफा बादशाहत कायम रखी हो, लेकिन यह भी सच है कि बीसवीं सदी का चीन शीत युद्ध के सोवियत यूनियन से कहीं ज्यादा ताकतवर निकला। इसीलिए नई सदी में चीन का बही-खाता अमेरिका से ज्यादा बेहतर नजर आता है। न केवल उसकी अर्थव्यवस्था जल्द ही अमेरिका से बड़ी होने जा रही है, बल्कि उसने अपनी डिजिटल करेंसी युआन को हथियार बनाकर डॉलर को भी पस्त करने की तैयारी कर ली है। कोरोना काल में भी दुनिया की इकलौती सकारात्मक रुझान वाली अर्थव्यवस्था के दम पर चीन ने अमेरिका से कोई आर्थिक या सामरिक युद्ध लड़े बिना ही विश्व संतुलन को अपने पक्ष में कर लिया है।

इस घटनाक्रम से इस बात का इशारा मिलता है कि बाइडेन प्रशासन जब काम-काज शुरू करेगा, तो अमेरिका को इस गर्त से निकालने के लिए उसे ऐसे मित्रों की तलाश होगी, जो चीन से हिसाब बराबर करने के लिए उसके कंधे-से-कंधा मिलाकर काम कर सके। भारत अपने आकार, आबादी, भौगोलिक स्थिति और हालिया तरक्की के दम पर इस भूमिका के लिए सबसे उपयुक्त किरदार साबित हो सकता है। चीन को लेकर दोनों देशों की साझा चिंताएं भी हैं। प्रशांत महासागर और चीन सागर में उसका बढ़ता दखल दोनों देशों पर दबाव बढ़ा रहा है। भारत से सहयोग बढ़ाने में अमेरिका कितना आगे जाएगा, यह बहुत कुछ हमारे प्रति बाइडेन के रु ख पर भी निर्भर करेगा। सीनेट में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान बाइडेन भारतीय-अमेरिकी समुदाय के समर्थक रहे हैं। एलएसी पर भारत-चीन गतिरोध के दौरान उन्होंने भी ट्रंप की तरह चीन की आक्रामक और विस्तारवादी नीतियों की आलोचना की थी। बाइडेन इस सोच के पक्षधर रहे हैं कि भारत और अमेरिका के बिना कोई भी साझा वैश्विक चुनौती हल नहीं की जा सकती। वो भारत की रक्षा और आतंकवाद-विरोधी क्षमताओं को मजबूत करने और व्यापार, स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा, अंतरिक्ष खोज और मानवीय राहत जैसे क्षेत्रों में सहयोग करने की बात भी कह चुके हैं। हालांकि जम्मू-कश्मीर, धारा 370, एनआरसी-सीएए, धार्मिंक स्वतंत्रता ऐसे मसले हैं, जिन पर ट्रंप प्रशासन अधिकतर तटस्थ रहता था, लेकिन डेमोक्रेट इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देते रहे हैं। कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति पद पर होने से इस सोच में कोई फर्क पैदा होगा, ऐसा नहीं लगता, लेकिन फिर भी उनके भारतीय मूल के होने का प्रतीकात्मक महत्त्व तो है ही।

 सवाल कई है और हो सकता है कि जवाब के लिए 20 जनवरी के बाद भी लंबा इंतजार करना पड़े। फिलहाल तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या नई शुरुआत के लिए बाइडेन के रास्ते के सभी कांटे दूर हो गए हैं, क्या तख्तापलट के लिए ट्रंप की झोली के सारे दांव खत्म हो गए हैं, या फिर अमेरिका के दामन पर अब भी नए दाग लगने बाकी हैं?

उपेन्द्र राय


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