भारत-चीन सीमा से समर की आहट!

Last Updated 27 Jun 2020 01:24:09 AM IST

चीन भी यह जानता है कि आज का भारत 1962 वाला भारत नहीं है। तकनीक और हथियार के मामले में भारत भले ही आज भी उससे पीछे हो, लेकिन सैन्य बलों के अनुभव और रणनीतिक कौशल में वो भारत के सामने कहीं नहीं टिकता। एकबारगी चीन इन सब बातों को नजरअंदाज कर भी दे, तो भारत का बड़ा बाजार उसके विस्तारवादी मंसूबों पर पड़ी बड़ी लगाम की तरह काम करता है


भारत-चीन सीमा से समर की आहट!

चीन से लगी सरहद पर पानी अब भारत के सिर के ऊपर से बहने लगा है। संवाद और समझाने की कोशिश और भारत के सख्त रु ख के बावजूद चीन पीछे हटने के बजाय नया मोर्चा खोलता जा रहा है। उसने अरु णाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तराखंड में एलएसी के कई अहम ठिकानों पर अपने सैनिकों और हथियारों की नये सिरे से तैनाती की है। अपनी सीमाओं की सुरक्षा के मद्देनजर भारत भी वाजिब तैयारी कर रहा है। वायु सेना और थल सेना ने आपसी सामंजस्य से साझा रणनीति बनाई है। देश के कम-से-कम दर्जन भर एयरपोर्ट हाई अलर्ट पर हैं, जहां से अपाचे, चिनूक, सुखोई जैसे लड़ाकू विमान एक इशारे पर उड़ान भरने के लिए तैनात हो गए हैं।  हालांकि भारत तो शांति की अपनी महान परंपरा का निर्वाह करते हुए जरूरी संयम बरत रहा है, लेकिन चीन की ओर से लगातार उकसावे की कार्रवाई हो रही है। ऐसे में एक सड़क से शुरू हुई टकराहट में दुनिया को अब समर की आहट सुनाई देने लगी है। आशंका जताई जा रही है कि अगर भारत-चीन के बीच नया युद्ध हुआ, तो यह 1962 जैसा दो-देशों का युद्ध भर नहीं होगा, बल्कि यह समूची दुनिया को दो-धुरी में बांटने वाला युद्ध होगा। एक ऐसा युद्ध जिससे न कोई देश खुद को अलग रख पाएगा, न ही इसके असर से बच पाएगा।

ऐसा होने का मतलब यह होगा कि चीन की जिद दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध की ओर धकेल सकती है। कोरोना जैसे वैश्विक संकट के बीच चीन की यह चाल उसके मंसूबों को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर रही है। वो भी तब जब कोरोना को लेकर चीन दो-तीन देशों को छोड़कर पूरी दुनिया का भरोसा खो चुका है। कुछ दिन पहले ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सेना को तैयार रहने को लेकर बयान दिया था। चीन ने अपने रक्षा बजट को भी 6.6 फीसद बढ़ाकर 178 बिलियन डॉलर तक पहुंचा दिया है। चीन की यह जमावट उसके मंसूबे से जुड़े सवालों की आग में अपनी ताकत की खतरनाक नुमाइश का काम कर रही है। इसलिए सवाल सिर्फ  चीन की नजर का नहीं, उसके निशाने का भी है-क्या आंतरिक उथल-पुथल के बीच राष्ट्रवाद का कार्ड खेलकर शी जिनपिंग चीन की जनता को कोई संदेश देना चाह रहे हैं, या इस जमावट के पीछे भारत से मिल रही चुनौती के बीच एशिया में अपनी चौधराहट साबित करने की घबराहट है, या फिर यह दुनिया के लिए कोई संदेश है कि कोरोना के कारण ढहती अर्थव्यवस्था के बावजूद सुपरपावर बनने का उसका मिशन उसकी सोची-समझी रणनीति पर ही आगे बढ़ रहा है।

बांग्लादेश के बराबर क्षेत्र पर है नजर
चूंकि हर संदेश का लाइन ऑफ एक्शन भारत से जुड़ती लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल से है, इसलिए इसका सीधा असर द्विपक्षीय संबंधों पर भी पड़ना तय है। वैसे भी यह महज सीमा विवाद का मसला नहीं है। भारत के जिस भू-भाग पर चीन नजर गड़ा रहा है, उसका क्षेत्रफल बांग्लादेश जैसे देश के बराबर है। तनातनी के बावजूद भारत ने तो बातचीत के दरवाजे खोल रखे हैं, लेकिन चीन भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ से बाज नहीं आ रहा। बातचीत में चीनी डिप्लोमेट कुछ और कह कर रहे हैं, वहीं सरहद पर उसके सैनिक कुछ और बर्ताव कर रहे हैं। यह ऐसे ही चलता रहा तो भारत के पास दो ही विकल्प बचेंगे शीर्ष राजनीतिक स्तर पर कूटनीतिक संवाद या फिर सैन्य स्तर पर रणनीतिक पलटवार।

हालांकि तमाम आशंकाओं के बावजूद युद्ध की संभावना कम ही दिखती है। इसकी एक नहीं, कई वजह हैं। विस्तारवादी जिद में जकड़ा चीन केवल भारत के साथ ही नहीं, अपने बाकी 13 पड़ोसियों के साथ भी सीमा विवाद में उलझा है। जाहिर तौर पर उसकी ताकत कई मोचरे पर बंटी हुई है। इन पड़ोसियों में एक रूस भी है, जो भारत का पुराना दोस्त रहा है और जो अमेरिका जैसे भारत के नये दोस्त की ही तरह नहीं चाहता कि यह टकराव हो। अमेरिका इस टकराव पर पहले ही भारत से अपनी संवेदना जता चुका है। उम्मीद है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के दौरे से रूस के रुख को लेकर भी स्थितियां साफ हुई होंगी। चीन भी यह जानता है कि आज का भारत 1962 वाला भारत नहीं है। तकनीक और हथियार के मामले में भारत भले ही आज भी उससे पीछे हो, लेकिन सैन्य बलों के अनुभव और रणनीतिक कौशल में वो भारत के सामने कहीं नहीं टिकता। एकबारगी चीन इन सब बातों को नजरअंदाज कर भी दे, तो भारत का बड़ा बाजार उसके विस्तारवादी मंसूबों पर पड़ी बड़ी लगाम की तरह काम करता है। अमेरिका से पिछड़ने के बावजूद चीन अभी भी भारत का बड़ा व्यापारिक साझेदार है। चीन का भारत से लड़ने का मतलब केवल निर्यात के क्षेत्र में ही 74.72 बिलियन डॉलर से ज्यादा का नुकसान उठाना होगा। आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे पश्चिमी देशों से टकराहट, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सैन्य बेड़ों की तैनाती पर भारी-भरकम खर्च और कोरोना से दरक रही अर्थव्यवस्था के बीच यह जोखिम उठाना चीन के लिए आत्मघाती हो सकता है।

वैश्विक रणनीति को लेकर भारत का नजरिया चीन से बिल्कुल अलग है। मोदी सरकार के कार्यकाल में पश्चिमी देशों से बढ़ा जुड़ाव भारत के लिए हितकारी साबित हुआ है। अमेरिका आज भारत को जी-7 में शामिल करवाना चाहता है, तो इसकी वजह भारत की अर्थव्यवस्था का दमदार होना ही नहीं है, बल्कि उसके लिए सामरिक दृष्टि से अहम इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भारत के जरिए चीन की ताकत को संतुलित करना भी है। इसके साथ ही क्वॉड के जरिए भारत के अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान से जुड़ने को भी चीन अपनी घेराबंदी ही समझता है। ताइवान पर भी भारत ने अपना रुख बदला है। चीन को अंदेशा है कि अगर हांगकांग में जारी आंदोलन को भी भारत का समर्थन मिल गया तो उसके वन चाइना मिशन पर पानी फिर जाएगा। चीन के तमाम विरोध के बावजूद भारत कई मौके पर साफ कर चुका है कि अपने रणनीतिक हितों के मुताबिक वो अपनी पसंद के नये साझेदार चुनने के लिए स्वतंत्र रहा है और आगे भी हमें इसमें बदलाव की कोई जरूरत नहीं दिखती।

तो क्या भारत और चीन के लिए हिंदी-चीनी भाई-भाई की जगह हिंदी-चीनी बाय-बाय कहने का वक्त आ गया है, या फिर अभी भी रिश्तों की सिकुड़ती सुरंग का कोई छोर उम्मीद की किसी किरण से रोशन हो रहा है? आधुनिक वैश्विक व्यवस्था में जिस तरह एक देश के हित दूसरे देश से जुड़े होते हैं, उस लिहाज से नहीं लगता कि चीन भारत के साथ युद्ध के रास्ते पर आगे बढ़ने की हिमाकत करेगा। इसके बजाय अपनी आक्रामकता दिखाने और भारत को उकसाने के लिए वो सीमा पर तनातनी का माहौल बनाए रख सकता है। देखने वाली बात होगी कि भारत आगे भी इसका जवाब संयम से देता रहेगा या फिर चीन से उसी आक्रामक भाषा में संवाद होगा जो भाषा उसे समझ आती है।

उपेन्द्र राय


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