खिंचता लॉकडाउन बढ़तीं चुनौतियां

Last Updated 08 May 2020 10:52:08 PM IST

पैंतालीस दिन पहले कोरोना महामारी के विस्तार की चिंता के बीच देश में लॉकडाउन की बुनियाद पड़ी थी। इतने दिन गुजर जाने के बाद अब उसी लॉकडाउन का विस्तार चिंताओं के बीच नई चुनौतियों की वजह बन रहा है। पहली चुनौती तो लॉकडाउन के अभीष्ट से ही जुड़ी है।


खिंचता लॉकडाउन बढ़तीं चुनौतियां

बेशक, बाकी दुनिया के मुकाबले भारत में कोरोना के मरीज अभी भी बेहद कम हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसकी सबसे बड़ी वजह सही समय पर लॉकडाउन लागू करने का फैसला है। लेकिन पिछले कुछ दिनों का अनुभव बता रहा है कि लॉकडाउन ने हमें कोरोना से लड़ने का कुछ समय जरूर दे दिया है, लेकिन यह कोरोना का मुकम्मल इलाज नहीं है। कोरोना को देश के पहले 10 हजार लोगों को अपना मरीज बनाने में 75 दिन लगे, लेकिन अगले 40 हजार मरीज केवल 22 दिन में ही सामने आ गए। इसमें भी 40 हजार से 50 हजार का आंकड़ा केवल तीन दिन में ही पार हो गया। तो क्या लॉकडाउन में ढील के साथ कोरोना भी कैद से आजाद हो रहा है?

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना लंबे समय तक हमारा ‘अतिथि’ बनकर रहेगा और इसका संक्रमण मई-जून के बीच अपने चरम पर पहुंचेगा। एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया ने भी कहा है कि जून-जुलाई में कोरोना पीक पर रहेगा। अमेरिका की बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप यानी बीसीजी का अनुमान है कि भारत में कोरोना के मामले जून के तीसरे हफ्ते में चरम पर रहेंगे। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जून के आखिरी हफ्ते में लॉकडाउन हटाने के हालात बन सकते हैं लेकिन वो भी मामूली रियायतों के साथ। टोटल लॉकडाउन फ्री वाली स्थिति तो सितम्बर में ही जाकर बन पाएगी।

सरकार ने अभी तक कोरोना का जिस तरह सामना किया है, उसे देखते हुए फिलहाल तो यह नहीं लगता कि हालात बेकाबू होंगे। पहला मामला सामने आने के तीन महीने बाद भी कोरोना के ज्यादातर मामले कुछ ही राज्यों तक सीमित हैं खासकर महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडु और गुजरात तक जिनकी कुल मामलों में 62 फीसद तक की हिस्सेदारी है। साथ ही देश के 13 राज्यों में पिछले कई दिनों से कोई नया मामला नहीं आया है। लेकिन इसके बावजूद यह भी मानना होगा कि सरकार के सामने अभी लंबे समय तक देशवासियों की जान की हिफाजत करने की चुनौती बनी रहेगी। खासकर उस गरीब मजदूर तबके की जिसके सामने एक तरफ कोरोना का कुआं है, तो दूसरी तरफ भूख की खाई। लॉकडाउन जितना बढ़ेगा, यह खाई उतनी चौड़ी होती जाएगी। 

अर्थव्यवस्था की रीढ़
शहरों में कामकाज ठप होने से हजारों प्रवासी मजदूर अपने-अपने घर लौट चुके हैं और लाखों कतार में हैं। गांवों में वो अपने जिस परिवार के बीच पहुंच रहे हैं, उनमें से ज्यादातर का खर्च उनके भेजे पैसों से ही चलता था। अब कामबंदी ने दोनों के लिए समस्या खड़ी कर दी है। शहरों का उनका रोजगार उनके वापस लौटने तक उनसे छिन ही गया है और गांवों में जहां वो अब पहुंचे हैं वहां पहले से ही ना काम है, ना कमाई। जो पूंजी पास में जमा थी वो बिना काम के शहर में फंसे रहने के सितम और घर वापसी के जतन में खर्च हो गई है यानी अब ये गरीब मजदूर पूरी तरह से सरकार के भरोसे हैं। अच्छा तो यही होता कि जो राज्य सरकारें ऐसे फंसेेमजदूरों को अपने राज्यों में लेकर आई हैं, वे स्थानीय स्तर पर इनके लिए रोजगार की व्यवस्था भी कर देतीं क्योंकि लंबे समय की बेरोजगारी इन्हें गरीबी के चक्र में और जकड़ देगी।

प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के सफर में एक बड़ी चुनौती भी गुपचुप तरीके से अपनी नई मंजिलें तलाश रही है। गुजरात से ओडिशा लौटे कई मजदूर संक्रमित पाए गए हैं, जिससे ओडिशा में नये मामले तेजी से बढ़े हैं। महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल से मजदूरों के घर लौटने में भी यही ट्रेंड दिखने लगा है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि हमारे जो गांव अभी तक महामारी के प्रकोप से बचे हुए थे, अब उन पर भी संक्रमण का जबर्दस्त खतरा मंडरा रहा है। एक बार गांवों में संक्रमण फैला तो उससे लड़ने के लिए वहां स्वास्थ्य संसाधन जुटाना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।

यह इसलिए भी चिंता की बात होनी चाहिए क्योंकि गांव ही हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और यहीं से निकल कर देश भर में फैलने वाले मजदूर हमारे उद्योगों की धुरी हैं। कहते हैं मजदूर के हाथ चलते हैं तो उद्योगों का पहिया भी सरपट दौड़ता है। लेकिन लॉकडाउन में मजदूर हाथ पर हाथ रखकर बैठने के लिए मजबूर हैं और काम की मंजूरी के बावजूद कारखाने ठप पड़े हैं।  

आजीविका का संकट
इनमें वो तमाम एमएसएमई की इकाइयां भी शामिल हैं, जिन पर नई औद्योगिक पॉलिसी में सरकार का खास फोकस रहा है। सरकार की इस पहल से हाल के कुछ साल में इस सेक्टर में रोजगार के 11 करोड़ नये अवसर पैदा हुए हैं। इन नव-कामगारों की बड़ी संख्या अब वापस घर लौट चुकी है। ये कामगार वापस काम पर कब लौटेंगे, इस पर अभी कोई दावा जल्दीबाजी ही होगी। ऐसे में रोजगार के सबसे बड़े सेक्टर में आने वाले दिनों में वीरानी बरकरार रह सकती है। इसका असर बड़े उद्योगों पर भी पड़ेगा क्योंकि उनमें से ज्यादातर छोटे उद्योगों से ही माल खरीदते हैं। ऐसे में जब तक हालात सामान्य नहीं हो जाते, तब तक बड़े उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों के सामने भी आजीविका का संकट खड़ा रहेगा।

इस सबके बीच केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सामंजस्य की अपनी चुनौतियां हैं। कई राज्य केंद्रीय गाइडलाइन से परे जाकर अपने-अपने तरीके से संक्रमण को रोकने में जुटे हैं। जैसे तमिलनाडु ने हाईवे पर दीवार खड़ी कर दी है, तो आंध्र प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों ने हाईवे पर गड्ढा ही खोद दिया गया है। पता नहीं  कि इससे संक्रमण की चेन रुक रही है या नहीं, लेकिन इसका सप्लाई चेन पर जरूर असर हो रहा है। इसे रोकने के लिए केंद्र की तरफ से राष्ट्रीय स्तर पर गाइडलाइन बनाने की जरूरत है।

लॉकडाउन के तीसरे चरण में पहुंच जाने के बाद भी सरकार के सामने लोगों को खुद जांच के लिए आगे आने और इससे जुड़ी सोच को बदलने की भी चुनौती है। इसके लिए सरकारी तंत्र को लोगों को यह भरोसा दिलाना होगा कि अगर कोई व्यक्ति खुद अपनी जांच के लिए आगे आता है तो उसका पूरा ख्याल रखा जाएगा। खासकर दिहाड़ी मजदूरों को यह यकीन दिलाना होगा कि पॉजीटिव पाए जाने पर सरकार उनके खाने-पीने का इंतजाम करेगी और वो भूखे नहीं रहेंगे।

लॉकडाउन थ्री में कई जगह ऐसा भी देखने को मिल रहा है कि आर्थिक गतिविधियों की छूट को कई लोगों ने सैर-सपाटे का जरिया बना लिया है। इससे हर कीमत पर सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने का सरकार का मकसद पराजित होता है। शराब बिक्री की व्यवस्था इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। केंद्र सरकार ने कोरोना के खिलाफ राज्य सरकारों को आर्थिक ताकत देने के लिए शराब बिक्री को मंजूरी दी है, लेकिन कई राज्य सरकारें इस बिक्री से जुड़ी सुरक्षा गाइडलाइनों का पालन कराने में विफल हो रही हैं। इसके कारण कई राज्यों में शराब दुकानों के सामने मेले जैसा नजारा दिखाई दिया है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी लापरवाहियां भी देश को लॉकडाउन-फ्री करने की सरकार की रणनीति और अनुशासन में रह रही बड़ी आबादी की जीवनचर्या को चुनौतीपूर्ण बना रही हैं।

उपेन्द्र राय


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