आसान नहीं लॉकडाउन का इम्तिहान

Last Updated 17 Apr 2020 11:30:07 PM IST

कोरोना के खिलाफ जंग में इस वक्त हमारे देश में लॉकडाउन का दूसरा चरण चल रहा है। कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि पहली तालाबंदी में देश के आम आदमी ने खुद को घरों में ‘कैद’ रखकर संयम का संकल्प बखूबी निभाया। जान है तो जहान है - की रणनीति पर चलते हुए सरकार का जोर भी ज्यादा-से-ज्यादा जान बचाने पर रहा।


आसान नहीं लॉकडाउन का इम्तिहान

हमारे लिए राहत की बात यह है कि लॉकडाउन के फैसले ने हमें कोरोना के खिलाफ संसाधनों की जमावट का मूल्यवान समय दिया है, वरना तो दुनिया जिस अमेरिका के सामने सिर झुकाती है, उसे भी कोरोना ने घुटनों पर ला दिया है। वहां पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के निजी स्वार्थों की वजह से केवल कामचलाऊ लॉकडाउन लगाया गया, जिसने अमेरिका का काम और नाम, दोनों खराब कर दिया। नतीजतन, अमेरिका का हाल इटली और स्पेन से भी ज्यादा बदतर हो गया है। अमेरिका में कोरोना मरीजों का आंकड़ा 6 लाख पार कर गया है, यानी इस वक्त दुनिया में हर तीसरा कोरोना मरीज अमेरिका से ही है।
 
सरकार की कोशिशों और जनता के सहयोग से हमारे देश में ऐसे हालात अभी दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे हैं। दिखाई दे रहे हैं तो संक्रमण रोकने के लिए लगे लॉकडाउन के सार्थक परिणाम। देश के 325 जिले अभी भी संक्रमण से पूरी तरह मुक्त हैं, जबकि संक्रमण देख चुके 17 राज्यों के 27 जिलों में भी पिछले 16 दिनों से कोरोना का एक भी मामला सामने नहीं आया है। जो पहले से बीमार हैं, उनके स्वस्थ होने की रफ्तार भी बढ़ी है।
 
लॉकडाउन के पहले चरण में लोगों को सुरक्षित रखने का लक्ष्य पूरा करने के बाद अब सरकार अपनी रणनीति में बदलाव के संकेत दे रही है। तालाबंदी के दूसरे दौर में अब ‘जान भी और जहान भी’ का शोर सुनाई दे रहा है, यानी सरकार ने अब देशवासियों की जान बचाने के साथ ही देश के तंत्र को भी मजबूत बनाए रखने का संकल्प लिया है। यकीनन लॉकडाउन के पहले चरण से मिले फीडबैक पर सरकार ने कागजों पर इसका रोडमैप भी तैयार किया होगा, लेकिन जान और जहान के बीच संतुलन साधना आसान नहीं होगा।
 
खासकर गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के लिए लॉकडाउन से जुड़ी अपनी परेशानियां हैं। संरचना के लिहाज से भारतीय समाज क्लिष्ट भी है और विशिष्ट भी। दुनिया में भारत जैसी मिसाल शायद ही कहीं और मिले जहां एक देश में पांच देश समाए हों।

1.  पहले भारत में देश की कुल आबादी का एक फीसद वो हिस्सा है, जो ठाठ-बाट की जिंदगी जीता है, जिसके आसपास दुनिया जहान की कोई तकलीफ नहीं फटकती, जो चार्टर्ड प्लेन से चलता है, लग्जरी गाड़ियों से लेकर महंगे मोबाइल फोन तक उनके पास लॉन्चिंग के दूसरे दिन ही पहुंच जाते हैं।

2.  दूसरे भारत में ब्यूरोक्रैट्स से लेकर ऐसे उद्योगपति और कारोबारी शामिल हैं, जिन्हें आर्थिक तंगी कभी परेशान नहीं करती।

3.  तीसरे भारत में वो उच्च मध्यमवर्गीय लोग हैं जो सामान्य से बेहतर जीवन यापन करता है और ताउम्र ऊपर की इन दोनों क्लास में आने का सपना देखते हैं।

4.  चौथा भारत निम्न मध्यम वर्ग यानी वो लोअर मिडिल क्लास वाला भारत है जो जिंदगी भर गरीबी के कुचक्र में गिरने से बचने के संघर्ष में जुटा रहता है। इसमें क्लर्क से लेकर सेक्शन ऑफिसर और प्राइवेट सेक्टर में छोटे-मोटे काम करने वाले लोग होते हैं। यही वो वर्ग है जो बदलाव के प्रति बेहद संवेदनशील होता है और देश-दुनिया में थोड़ा-सा भी उलटफेर इनकी जिंदगी में उथल-पुथल मचा देता है।

5.  और पांचवां भारत 49 करोड़ लोगों का वो भारत है जिनकी सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक रोजाना की आय महज 20 से 30 रु पये होती है।
 यही वो भारत है जो जिंदगी की गाड़ी चलाने के लिए प्रतिदिन कमाता है और फिर उसी कमाई से अपनी कम-से-कम जरूरतों को पूरा करने के लिए रोजाना नई लड़ाई लड़ता है। लॉकडाउन के दौर में इस ‘भारत’ की संवेदना का ध्यान रखना ही सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है। लॉकडाउन से उत्पादन लगभग ठप है और गरीब मजदूर बड़े पैमाने पर बेरोजगार हो गया है। सरकार पर दबाव है कि अगर जल्द आर्थिक गतिविधियां शुरू नहीं हुई तो एक बड़े वर्ग के सामने भुखमरी की समस्या भी आ सकती है, जो न सिर्फ कोरोना से लड़ाई को कमजोर करेगी बल्कि एक नया सामाजिक संकट भी खड़ा कर देगी। 
 
असंगठित क्षेत्र तबाह
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा स्टडी बताती है कि कोरोना काल में असंगठित क्षेत्र के 40 करोड़ श्रमिक तबाही की जद में हैं। इन पर और ज्यादा गरीब और वंचित होने का खतरा मंडराने लगा है। ऐसे लाखों मजदूर अपने-अपने घरों से दूर दूसरे राज्यों में फंसे हैं। इस स्टडी के अनुसार इनमें से 80 फीसद से ज्यादा मजदूर केवल जिंदा रहने के लिए राशन की अपनी बुनियादी जरूरत के लिए भी सरकारी मदद के भरोसे हैं। खाने के एक पैकेट के लिए परिवार के मुखिया को लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है। अपनी पत्नी और बच्चों के सामने रोज इस तरह अपना स्वाभिमान दांव पर लगाना कितना तकलीफदेह होता होगा, यह वो ही जानता है। इस वजह से भी कई मजदूर दिहाड़ी का पक्का इंतजाम होने तक अपने-अपने घरों को लौटना चाहते हैं। गुजरात में, ओडिशा और मुंबई में यूपी-बिहार के मजदूरों का घर जाने की मांग को लेकर हंगामा इसी बात की अभिव्यक्ति भी हो सकता है।
 
सरकार ने बेशक गरीबों के लिए अन्न के भंडार खोल दिए हैं, लेकिन इसे सही हाथों तक पहुंचाने वाली सप्लाई चेन बनने में वक्त लग रहा है। यही हाल सरकारी योजनाओं से जुड़ी राहतों का है। इन गरीब मजदूरों की समस्या लॉकडाउन हटने के बाद तुरंत दूर हो जाएगी, ऐसा भी नहीं लग रहा। बेरोजगार हो चुके मजदूरों के लिए नए सिरे से रोजगार की तलाश बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। असंगठित ही नहीं, संगठित क्षेत्र और बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। भारत में करीब साढ़े छह एमएसएमई यानी सूक्ष्म, लघु और मध्यम आकार के उद्योग हैं। उत्पादन से जुड़ी ऐसी कई इकाइयों पर अभी से टेकओवर की तलवार लटक गई है। ऐसे में वो खुद का भविष्य बचाएंगे या मजदूरों का ये समझने वाली बात है।
 
उद्योग-धंधों को फिर से पटरी पर लाने के लिए बेल-आउट पैकेज की बातें भी चल रहीं हैं। 20 अप्रैल के बाद इस पर शायद कोई फैसला हो। लेकिन आज के हालात में यह पैकेज कितने काम का होगा इस पर भी सवाल है। जब बाजार में डिमांड ही नहीं है तो सामान खरीदेगा कौन? एक तरफ मांग का संकट गहरा रहा है और दूसरी तरफ आपूर्ति का मसला है जो लगभग रु का हुआ है। जाहरि तौर पर उसका असर अर्थव्यवस्था पर भी दिखने लगा है। ब्रिटश ब्रोकरेज फर्म बार्कलेज ने अंदेशा जताया है कि लॉकडाउन में आर्थिक गतिविधियां ठप रहने से भारतीय अर्थव्यवस्था को करीब 235 अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है। अनुमान है कि इससे हमारी विकास दर शून्य या उससे नीचे भी जा सकती है। कोरोना का संकट इतना बड़ा है कि एशिया समेत पूरे वि के लिए इससे भी बुरे पूर्वानुमान हैं। एक-दूसरे से अर्थव्यवस्था के जुड़े होने के कारण भारत भी इससे अछूता नहीं रह सकता। इसीलिए संभवत: ऐसा पहली बार हो रहा है कि भारत की विकास दर शून्य या नेगेटिव जोन में जाने का अनुमान लग रहा है।
 
मौजूदा स्तर को संभाले रखने का ऐसा ही संकट नौकरी-पेशा लोगों के सामने भी खड़ा है। देश में वर्क फ्रॉम होम का नया कल्चर बड़े पैमाने पर उनकी छंटनी या वेतन कटौती की चुनौती का सबब बन सकता है। इस सबके बीच किसानों के लिए राहत की शुरु आत जरूर हो गई है। लगभग सभी प्रदेशों में गेहूं की सरकारी खरीद की प्रक्रिया आरंभ हो गई है। फिलहाल इसकी रफ्तार जरूर धीमी है, लेकिन आने वाले दिनों में यह तेजी पकड़ेगी जो किसानों को अनिश्चित दिख रहे भविष्य के भंवर से बाहर निकालेगी।
 
इससे यकीनन बाकी सेक्टरों को भी नई उम्मीद बंधेगी। सरकार की भविष्य की योजना में जान के साथ जहान का भी कल्याण शामिल है, लेकिन प्राथमिकता अब भी जान की सुरक्षा ही है। इसके पीछे सोच यह है कि पहले सार्वजनिक स्वास्थ्य को दुरूस्त कर लिया जाए क्योंकि अगर वो मोर्चा डांवाडोल हुआ, तो अर्थव्यवस्था ऐसे ही डगमगा जाएगी। ऐसे में संतुलन की तस्वीर कैसी होगी, यह सरकार की ओर से तय 20 अप्रैल की डेडलाइन के बाद ही साफ हो पाएगा।

उपेन्द्र राय


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