सबके साथ से लौटेगा अर्थव्यवस्था में विश्वास

Last Updated 14 Dec 2019 01:36:55 AM IST

जीडीपी ग्रोथ रेट 15 साल के न्यूनतम स्तर पर है तो बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर। पिछले 40 साल में पहली बार उपभोक्ता खर्च कम हुआ है। इसके बावजूद सरकार मंदी को नकार रही है। लेकिन जब आम आदमी की थाली से खाना ही गायब होने लगे तो सरकार की इस जिद के कोई मायने नहीं रह जाते। देश की अर्थव्यवस्था ने बीते 5 सालों में जिस तरह गोते लगाए हैं, उससे एक बात फिर साबित हो गई है कि अर्थव्यवस्था राजनीति की चेरी है। आर्थिक मंच पर दिखने वाला हर परिणाम सत्ता ही तय करेगी। लेकिन मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए किए जाने वाले ठोस उपाय फिलहाल नदारद दिख रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि सरकार अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में अब और कितना वक्त लगाएगी? जो हालात आज बने हैं, क्या उन्हें टाला नहीं जा सकता था?


सबके साथ से लौटेगा अर्थव्यवस्था में विश्वास

बचपन से हमें पाठ पढ़ाया जाता है कि भगवान के सामने सब बराबर हैं, न कोई छोटा, न कोई बड़ा। पिछले कुछ महीनों से देश पर छाई मंदी को लेकर भी अब यही बात कही जा सकती है। कम-ज्यादा अनुपात में ही सही, अमीर हो या गरीब, देश का हर तबका मंदी का झटका झेल रहा है। बिजनेस स्टैंर्डड में छपी एक रिपोर्ट बता रही है कि किस तरह मंदी से मची आर्थिक उथल-पुथल ने देश के दौलतपतियों की हैसियत को भी उलट-पलट कर रख दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक मार्च, 2018 में उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद से अरबपतियों की संख्या घटी है, और अमीरों और कम अमीरों के बीच का अंतर बढ़ा है। सैंपल में देश के 574 दौलतमंद लोगों को शामिल किया गया। इनमें से 6 दिसम्बर को बाजार बंद होने तक केवल 142 की हैसियत 100 करोड़ रुपए या उससे ज्यादा थी, बचे 432 लोगों की नेटवर्थ पहले से घट गई है।

वैसे, मंदी के बचाव में तर्क दिया जा सकता है कि पिछले एक साल में दौलतमंदों की कुल हैसियत 3.2 फीसदी सुधरी है, लेकिन इसका फायदा भी इनमें से चुनिंदा अरबपतियों की बड़ी कंपनियों तक ही सीमित है। आंकड़ों में आया सालाना बदलाव खुद इस सुधार की कहानी भी बयां कर देता है-30.2 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 31 लाख करोड़ रुपए। बात केवल इतनी भर नहीं है। आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों का सिलसिला थम नहीं रहा है, और सरकार की समस्या यह है कि हालात संभालने के लिए वो देश की जनता को उम्मीदों का जो आसमान दिखा रही है, उसे जमीन पर उतारने में नाकाम साबित हो रही है। पिछले महीने ही सरकार ने रिएलटी सेक्टर को 25 हजार करोड़ रुपए का स्पेशल फंड दिया और कहा कि इससे फंसे हुए हाउसिंग प्रोजेक्ट्स को इंसेटिव मिलेगा। अब खबर है कि हाउसिंग सेक्टर की देश की सबसे बड़ी कंपनी डीएचएफएल ही डूबने वाली है। तय समय में दिवालिया प्रक्रिया पूरी करने के लिए आरबीआई ने तीन सदस्यीय सलाहकार बोर्ड भी बना दिया है।

अब देखिए, एक समस्या कितने क्षेत्रों में अपना विस्तार करती है। डीएचएफएल पर बैंकों का 38 हजार करोड़ रुपए का बकाया है। अगर इसकी वसूली का रास्ता नहीं निकलता है, तो बैंकों पर एनपीए का बोझ और बढ़ जाएगा। सबसे ज्यादा पैसा एसबीआई और बैंक ऑफ बड़ौदा का फंसा है। दो महीने पहले ही सरकार ने 10 बड़े बैंकों का मर्जर कर चार बड़े बैंक बनाने का ऐलान किया था, दलील दी थी कि इन बैंकों पर एनपीए काफी बढ़ चुका है, और मर्जर ही अकेला रास्ता है। जिन चार बैंकों को एंकर बैंक बनाया गया उनमें एसबीआई और बैंक ऑफ बड़ौदा शामिल हैं। डीएचएफएल मामले में ये दोनों भारी एनपीए के फेर में फंसते दिख रहे हैं यानी सरकार जिस मर्जर को संजीवनी बता रही थी, वो खुद ही बड़ा मर्ज साबित हो रहा है। इसका इलाज नहीं हुआ तो मंदी से लड़ाई में सरकार का एक और दांव कुंद पड़ जाएगा।

बैंकों का पैसा फंसा
समस्या यह है कि आरबीआई के रडार पर अभी ऐसी 70 कंपनियां और हैं, जिनमें बैंकों का 4 लाख करोड़ रुपया फंसा हुआ है। इन्हें दिवालिया होने से बचाने की डेडलाइन भी अगस्त में पूरी हो चुकी है यानी बैंकिंग सेक्टर में ‘अमावस की रात’ काफी लंबी हो सकती है। इस सबका नतीजा यह हुआ है कि बैंकों ने कर्ज देने में उदारता दिखानी बंद कर दी है। हालांकि औद्योगिक माहौल इतना बुरा है कि कर्ज लेने की कोई उत्सुकता भी नहीं दिख रही। हाल यह है कि कर्ज की डिमांड उन डूबे हुए कारोबारियों की ओर से आ रही है, जिन्हें इसकी जरूरत सूद देने के लिए या फिर खुद को बनाए या बचाए रखने के लिए है। वास्तव में कर्ज की जरूरत देश को सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले करीब 6.5 करोड़ एमएसएमई को है, जिन्हें वो मिल नहीं रहा है। 

नाकामी की यह कहानी अब सरकार पर संदेह के दौर में प्रवेश कर चुकी है। बेशक, नीयत को लेकर अभी जवाब तलब करने की नौबत न आई हो, लेकिन जिस तरह एक-के-बाद-एक मोर्चे पर सरकार की कोशिशों को धक्का लग रहा है, उससे उसकी आर्थिक नीति तो सवालों में घिर ही गई है। न 20 लाख करोड़ के बेल आउट पैकेज से बैंकों के दिन फिरे हैं, न कॉरपोरेट टैक्स को 30 से घटाकर 22 फीसद करने से कारोबारी सेंटीमेंट में कोई सुधार आया है। उल्टे मशहूर उद्योगपति राहुल बजाज ने तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सामने ही कह दिया कि आज लोगों को सरकार की आलोचना में डर लग रहा है, जबकि यूपीए-2 में किसी की भी आलोचना की जा सकती थी। देश की एक और नामी उद्योगपति किरण मजूमदार शॉ ने भी राहुल बजाज के डर का समर्थन कर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। आम तौर पर देश का कॉरपोरेट सेक्टर सरकार के लिए इतनी सख्त सोच बयान नहीं करता, लेकिन राहुल बजाज ने जो नई लकीर खींची है, उसने विपक्ष के हमले से सरकार को बचाने वाली ‘लक्ष्मण रेखा’ को जरूर धुंधला कर दिया है।  

राहुल बजाज जिस डर का जिक्र कर रहे थे, वो दरअसल, इनकम टैक्स, सीबीआई, ईडी जैसी जांच एजेसियों की ‘सुविधानुसार सक्रियता’ से जुड़ा है। सरकार पर विपक्ष का अक्सर आरोप लगता है कि वो अपने खिलाफ मुंह खोलने वालों को परेशान करने के लिए इन जांच एजेंसियों का ‘मनमाना’ इस्तेमाल कर रही है। यह विडंबना ही है कि राहुल बजाज का ‘डर’ सामने आने के तुरंत बाद से उनकी चीनी मिलों पर किसानों का 10 हजार करोड़ बकाया होने की चर्चा भी शुरू हो गई जबकि राहुल बजाज का इन चीनी मिलों से कोई वास्ता नहीं है। दरअसल, ये चीनी मिलें कुशाग्र बजाज के नेतृत्व वाले बजाज हिंदुस्तान लि. से संबद्ध हैं।

हकीकत बयां करते आंकड़े
इस विषय पर राजनीति को एक तरफ रहने दें तो भी आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से भारत में 23 हजार अरबपतियों ने देश छोड़ा है। नोटबंदी के बाद अकेले साल 2017 में ही 7,000 से ज्यादा अरबपति देश छोड़ गए। ये तो आंकड़े हैं जबकि हकीकत यह है कि एजेंसियों की सख्ती के चलते 2014 से 2019 तक करोड़ों-अरबों का व्यवसाय करने वाले 50 हजार से ज्यादा उद्यमी देश छोड़कर विदेश चले गए। अर्थव्यवस्था पर अपने पिछले अंक में मैंने इस बात का जिक्र भी किया था। विदेशों का रुख करने वाले ऐसे कई लोगों ने बातचीत में यह बात स्पष्ट तौर पर कही थी कि एजेंसियों की मनमानी के चलते देश में कारोबार के हालात अब सामान्य नहीं रह गए हैं। यह स्थिति देश में कारोबारी माहौल मुफीद नहीं होने की गवाही देती है। इसकी वजह है देश में घटता कारोबार और पिछले 18 महीनों से लगातार घटती जीडीपी। इस साल की तीसरी तिमाही आते-आते जीडीपी 4.5 फीसदी रह गई है। कृषि, वन और मत्स्य को छोड़ दें, तो बाकी तमाम कोर सेक्टर में एकतरफा गिरावट जारी है।



जीडीपी ग्रोथ रेट 15 साल के न्यूनतम स्तर पर है तो बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर। पिछले 40 साल में पहली बार उपभोक्ता खर्च कम हुआ है। इसके बावजूद सरकार मंदी को नकार रही है। लेकिन जब आम आदमी की थाली से खाना ही गायब होने लगे तो सरकार की इस जिद के कोई मायने नहीं रह जाते। देश की अर्थव्यवस्था ने बीते 5 सालों में जिस तरह गोते लगाए हैं, उससे एक बात फिर साबित हो गई है कि अर्थव्यवस्था राजनीति की चेरी है। आर्थिक मंच पर दिखने वाला हर परिणाम सत्ता ही तय करेगी। लेकिन मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए किए जाने वाले ठोस उपाय फिलहाल नदारद दिख रहे हैं।  ऐसे में सवाल है कि सरकार अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में अब और कितना वक्त लगाएगी? जो हालात आज बने हैं, क्या उन्हें टाला नहीं जा सकता था? क्या पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम की यह आशंका सही है कि सरकार के पास अर्थव्यवस्था का कोई रोडमैप नहीं है? भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा ‘अनर्थकाल’ को दूर करने के लिए सरकार को ऐसे तमाम सवालों का जवाब लेकर सामने आना होगा।

उपेन्द्र राय


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