अरावली : उजाड़ से घिर आया संकट

Last Updated 21 May 2025 12:23:10 PM IST

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में बीते कुछ दिनों से गर्मी के साथ आकाश में छाए धूल के गुबार ने सांस के मरीजों के लिए जीवन का संकट खड़ा कर दिया है।


अरावली : उजाड़ से घिर आया संकट

हरियाणा के भिवानी में बवंडर ऐसा था कि दृश्यता 200 मीटर नहीं रह गई थी। रेत के तूफान ने राजस्थान के बीकानेर में भी लोगों को भयभीत किया वहां धूल ने सूरज को ढंक दिया और 455 डिग्री की गर्मी को घुटन में बदल दिया। कहने की जरूरत नहीं कि यह रेतीली आंधी पाकिस्तान से उठी थी। वैसे तो हर साल मानसून आने से पहले दिल्ली और उत्तर-पश्चिम भारत में ऐसे धूल भरे तूफान आना आम है। इस मौसम में सऊदी अरब और कभी-कभी सहारा जैसे दूरदराज के इलाकों से उठने वाली धूल पश्चिमी हवाओं के जरिए यहां तक पहुंच जाती है। चिंता की बात यह है कि इस तरह के धूल भरे अंधड़ की संख्या और दायरा साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है। समझना होगा कि यह सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है। 2015  के बाद से ऐसे अंधड़ों की संख्या बढ़ती जा रही है। अंधड़ से जान-माल का नुकसान तो होता ही है, सार्वजनिक संपत्तियों को भी खासा नुकसान होता है। अंतरराष्ट्रीय जर्नल ‘अर्थ साइंस इंफोरमैटिक्स’ में प्रकाशित एक शोध में चेतावनी दी जा चुकी है कि अरावली पर्वतमाला में पहाड़ियों के गायब होने से राजस्थान में रेत के तूफान में वृद्धि हुई है।

भरतपुर, धौलपुर, जयपुर और चित्ताैड़गढ़ जैसे स्थानों, जहां अरावली पर्वतमाला पर अवैध खनन, भूमि अतिक्रमण और हरियाली उजाड़ने की अधिक मार पड़ी है, को सामान्य से अधिक रेतीले तूफानों का सामना करना पड़ रहा है।  केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान के पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर एल के शर्मा और पीएचडी स्कॉलर आलोक राज के अध्ययन ‘असेसमेंट ऑफ लेंड यूज डायनामिक्स  ऑफ द  अरावली यूजिंग इंटीग्रेटेड’ में कहा गया है कि गांठ बांध लें कि दिल्ली, राजस्थान के गैर-मरु स्थलीय जिलों और हरियाणा का अस्तित्व अरावली पर टिका है, और अरावली को नुकसान का अर्थ है कि देश के अन्न के एक कटोरे पंजाब तक बालू के धोरों का विस्तार। 

रेत के बवंडर खेती और हरियाली वाले इलाकों तक न पहुंचें, इसके लिए सुरक्षा-परत या शील्ड का काम हरियाली और जल-धाराओं से संपन्न अरावली पर्वतमाला सदियों से करती रही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ें जमा रहा है। सनद रहे कि राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान और उससे आगे तक फैले भीषण रेगिस्तान से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है। खासकर गर्मी में यह धूल पूरे परिवेश में छा जाती है। मानवीय जीवन पर इसका दुष्परिणाम ठंड में दिखने वाले स्मोग से अधिक होता है। विडंबना है कि बीते चार दशकों में यहां मानवीय हस्तक्षेप और खनन इतना बढ़ा है कि कई स्थानों पर पहाड़ की श्रृंखला की जगह गहरी खाई हो गई और इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि उपजाऊ जमीन पर रेत की परत का विस्तार हो रहा है।

गुजरात के खेड ब्रह्म से शुरू  हो कर कोई 692 किमी. तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है, जहां राष्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है, और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में गिना गया है। ऐसी महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह न केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ़ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असल में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं, जिससे एक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली, साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। 

एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में छपी रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दो दशकों में कई अन्य पहाड़ियों के अलावा, ऊपरी अरावली पर्वतमाला की हरियाणा और उत्तरी राजस्थान में कम और मध्य  ऊंचाई की कम से कम 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं। ऊपरी स्तर पर पहाड़ियों का गायब होना नरैना, कलवाड़, कोटपूतली, झालाना और सरिस्का में समुद्र तल से 200 मीटर से 600 मीटर की ऊंचाई पर दर्ज किया गया था। याद करें कोई तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछा था कि आखिर, कौन हनुमान जी ये पहाड़ियां उठा कर ले गए? 1975-2019 के दौरान किए गए एक अध्ययन में पता चला कि वन क्षेत्र में सघन बस्तियां बस जाना पहाड़ियों के गायब होने के प्रमुख कारणों में से एक था।

इस अध्ययन के परिणामों से पता चला है कि 1975-2019 के बीच अरावली की 3676 वर्ग किमी. भूमि बंजर हो गई। ऐसे हालात में अंधड़ की मार का दायरा बढ़ेगा। अरावली पहाड़ का उजड़ना अर्थात वहां जंगल और जल निधियों के उजड़ने, दुर्लभ वनस्पतियों के लुप्त होने के दुष्परिणाम  सामने आ रहे हैं। तेंदुए, हिरण और चिंकारा भोजन के लिए मानव बस्तियों में प्रवेश करते हैं, और मानव-जानवर टकराव के वाकिये बढ़ रहे हैं। जान लें अंधड़ बढ़ने से भी जानवरों के बस्ती में घुसने की घटनाएं बढ़ती हैं।  अवैध खनन और भूमि अतिक्रमण को कम करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए और लगातार क्षेत्र की निगरानी की जानी चाहिए। अरावली को और अधिक नुकसान हुआ तो तेज अंधड़ की मार से दिल्ली भी नहीं बचेगी। चिंताजनक तथ्य है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 फीसद हिस्से पर हरियाली थी जो आज बमुश्किल सात फीसद रह गई। जाहिर है कि हरियाली खत्म हुई तो वन्य प्राणी, पहाड़ों की सरिताएं और छोटे झरने भी लुप्त हो गए।

सनद रहे अरावली रेगिस्तान की रेत को रोकने के अलावा मिट्टी क्षरण, भूजल का स्तर बनाए रखने और जमीन की नमी बरकरार रखने वाले जोहड़ों और नदियों को आसरा देती रही है। अरावली  की प्राकृतिक संरचना नष्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावती, दोहन जैसी नदियां लुप्त हो रही हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट की एक सर्वें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किमी. क्षेत्र पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किमी. पर रह गई है। साथ ही, इसके 47 वर्ग किमी. में कारखाने भी हैं।
(लेख में विचार निजी हैं)

पंकज चतुर्वेदी


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