मुद्दा : कौन नहीं चाह रहा नदी-तालाब-जोड़

Last Updated 30 Nov 2024 01:27:13 PM IST

प्यास-पलायन-पानी के लिए बदनाम बुंदेलखंड में हजार साल पहले बने चंदेलकालीन तालाबों को छोटी सदा नीर नदियों से जोड़ कर कम खर्च में कलंक मिटाने की योजना आखिर ठप हो गई।


मुद्दा : कौन नहीं चाह रहा नदी-तालाब-जोड़

ढाई दशकों से यहां केन और बेतवा नदियों को जोड़ कर इलाके को पानीदार बनाने के सपने बेचे जा रहे हैं। हालांकि पर्यावरण के जानकर बताते रहे हैं कि इन नदियों के जोड़ से बुंदेलखंड तो घाटे में रहेगा, लेकिन कभी चार हजार करोड़ की बनी योजना अब 44 हजार 650 करोड़ की हो गई और इसे बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है।

सन 2010 में पहली बार जामनी नदी को महज सत्तर करोड़ के खर्च से टीकमगढ़ जिले के पुश्तैनी विशाल तालाबों तक पहुंचाने  और इससे 1980 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई की योजना तैयार की गई। इस योजना में न तो कोई विस्थापन होना था और न ही कोई पेड़ काटना था। सन  2012 में काम भी शुरू हुआ, लेकिन आज करोड़ों खर्च के बाद न नहर है न ही सिंचाई। यह बात आम ग्रामीण से छुपी नहीं है कि बहुत से लोग यह नहीं चाहते कि इस तरह के छोटे बजट की योजना चर्चा में आए क्योंकि फिर केन-बेतवा जैसे पहाड़ बजट की योजनाओं पर सवाल उठने लगेंगे? यह किसी से छिपा नहीं है कि देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी होती नहीं हैं, उनकी लागत बढ़ती जाती है और जब तक वे पूरी होती है, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अफरात हैं। केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं।

केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्य प्रदेश है। दोनों नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश  में जा कर यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प-वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है। सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है, जबकि हकीकत इससे बेहद परे है। टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम से कम एक बड़ा सा सरोवर नहीं था, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता था। आधुनिकता की आंधी में एक चौथाई तालाब चौरस हो गए और जो बचे तो वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए।

जामनी नदी बेतवा की सहायक नदी है और यह सागर जिले से निकल कर कोई 201 किलोमीटर का सफर तय कर टीकमगढ जिले में ओरछा में बेतवा से मिलती है। आमतौर पर इसमें सालभर पानी रहता है, लेकिन बारिश में यह ज्यादा उफनती है। योजना तो यह थी कि यदि बम्होरी बराना के चंदेलकालीन तालाब को नदी के हरपुरा बांध के पास से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में सालभर लबालब पानी रहे। इससे 18 गावों के 1800  हैक्टर खेत सींचे जाएंगें। यही नहीं नहर के किनारे कोई 100 कुएं बनाने की भी बात थी, जिससे इलाके का भूगर्भ स्तर बना रहता। अब इस येजना पर व्यय है महज कुछ करोड़। इससे जंगल-जमीन को नुकसान कुछ नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में समय कम लगता। इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही कम से कम से 10 साल का काल लग रहा है।

समूचे बुंदेलखंड मे पारंपरिक तालाबों का जाल है। आमतौर पर ये तालाब एकदूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। यही नहीं बहुत से स्थानों पर तालाब स्थानीय छोटी नदियों से भी जुड़े हुए थे, जिनसे पानी का आदान-प्रदान चलता था। इस तरह बारिश की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, शहजाद, टौंस, गरारा, बघैन, पाईसुमी, धसान, बघैन जैसी आधा सैंकडा निदयां है जो बारिश में तो उफनती है, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिल कर गुम हो जाती है। यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालाब आबाद हो जाएगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा कमल गट्टा मिलेगा। इसकी गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। केन-बेतवा जोड़ का दस फीसद यानी एक हजार करोड़ ही ऐसी योजनाओं पर ईमानदारी से खर्च हो जाए तो 20 हजार हेक्टेयर खेत की सिंचाई व भूजल का स्तर बनाए रखना बहुत ही सरल होगा।

हुआ यूं कि इस योजना की शुरु आत 2012 में हुई और बीते बारह सालों में कम से कम 12 बार हरपुर नहर ही टूटती रही। दो साल पहले अगस्त में अचानक तेज बरसात आई तो 41 करोड़ 33 लाख लागत की हरपुरा नहर पूरी ही बह गई। यह समझना होगा कि देश में जल संकट का निदान स्थानीय और लघु योजनाओं से ही संभव है। ऐसी योजनाएं जिसे स्थानीय समाज का जुड़ाव हो  और यदि जामनी नदी से तालाबों को जोड़ने का काम सफल हो जाता तो सारे देश में एक बड़ी परियोजना से आधे खर्च में निदयों से तालाबों को जोड़ कर खूब पानी उगाया जाता। शायद तालाबों पर कब्जा करने वाले, बड़ी योजनाओं में ठेके और अधिग्रहण से मुआवजा पाने वालों को यह रास नहीं आया। 

पंकज चतुर्वेदी


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