वैश्विकी : हेग में मानवता की जीत
हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) में इस्रइल को मुंह की खानी पड़ी तथा गाजा के असहाय लोगों में आशा की किरण जगी है। गाजा में इस्रइली सेना के नरसंहार को रोकने में इस न्यायालय का फैसला पूरी तरह सफल होगा, इसमें संदेह है।
वैश्विकी : हेग में मानवता की जीत |
फिर भी विभिन्न देशों के न्यायाधीशों वाला यह न्यायिक मंच गाजा त्रासदी को कम करने में सहायक सिद्ध होगा। पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि न्यायलय के सत्र न्यायाधीश अपने-अपने देशों की नीतियों का अनुसरण करते हुए फैसला देंगे, लेकिन इन न्यायाधीशों ने राष्ट्रीय संकीर्णता से ऊपर उठते हुए कानूनी और मानवीय रूप से ही विचार किया। दक्षिण अफ्रीका की ओर से दायर किए गए इस मुकदमे में तात्कालिक राहत की प्रार्थना की गई थी। न्यायालय ने उसकी सभी मांगों को मान लिया। इस्रइल और उसके पैरोकार अमेरिका जैसे देश धृष्टता पर आमादा हैं। वे केवल इसी बात पर जोर दे रहे हैं कि अदालत ने युद्धविराम लागू करने का फैसला नहीं सुनाया। हकीकत यह है कि न्यायालय ने इस्रइल को जो निर्देश दिए हैं, यदि उन्हें लागू किया जाए तो गाजा में युद्धविराम लागू हो जाएगा। अदालत ने इस्रइल को निर्देश दिया है कि वह फिलिस्तीन के लोगों की जान-माल को नुकसान न पहुंचाए, जीवन-यापन के लिए जरूरी सुविधाओं से वंचित न करे तथा लोगों को घर-बार छोड़ने पर मजबूर न किया जाए।
आईसीजे में भारत का भी प्रतिनिधित्व था। न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी ने मुकदमे के सभी बिंदुओं पर दक्षिण अफ्रीका के समर्थन में फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति भंडारी की गाजा के हालात पर समझदारी विदेश मंत्री एस. जयशंकर के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। गाजा के घटनाक्रम को केवल राजनीतिक और कूटनीतिक नफा-नुकसान से ही नहीं तौला जाना चाहिए। यह मानवता के भविष्य से जुड़ा मसला है। आशा की जानी चाहिए कि विदेश मंत्रालय आईसीजे के अंतरिम फैसले की समीक्षा कर गाजा नीति में आवश्यक बदलाव करेगा। जरूरत इस बात कि है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दक्षिण अफ्रीका और उसके राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा के साथ खुलकर एकजुटता प्रदर्शित करें। तकाजा तो यह था कि भारत और दक्षिण अफ्रीका दोनों साझा रूप से यह मुकदमा दायर करते तथा भारत के जाने-माने वकील दलील पेश करते। कुछ भी हो आज पूरा श्रेय दक्षिण अफ्रीका और राष्ट्रपति रामाफोसा की झोली में जा रहा है। ग्लोबल साउथ को ऐसे ही नेतृत्व की जरूरत है।
इस्रइल और उसके पैरोकार अमेरिका जैसे देशों के रवैये से लगता है कि गाजा में खून-खराबा रुकने की उम्मीद कम है। जिस दिन फैसला आया उसी दिन अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र राहत कार्य एजेंसी को आर्थिक अनुदान बंद कर दिया। ‘एंग्लो-सेक्शन गठजोड़’ के देशों कनाडा और आस्ट्रेलिया ने इसका अनुसरण किया। एक ऐसे समय जब इस एजेंसी के आर्थिक और मानवीय संसाधनों को बढ़ाना चाहिए था, उनमें कटौती की जा रही है। यही कारण है कि हमास और हिज्बुल्लाह जैसे संगठन मानते हैं कि इस्रइल को केवल लड़ाई के मैदान में ही हराया जा सकता है। फिलहाल, लेबनान में हिज्बुल्लाह और यमन में हूती ने अपनी सैनिक कार्रवाइयों को सीमित रखा है, लेकिन इतने से ही इस्रइल और उसके पैरोकार देशों की नाक में दम हो गया है। यदि संघर्ष का विस्तार होता है तो इस्रइल को और अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी।
हर साल 27 जनवरी का दिन होलोकॉस्ट स्मरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिटलर और नाजी जर्मनी ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारा था। होलोकॉस्ट दिवस पर विश्व बिरादरी यह संकल्प दोहराती है कि भविष्य में हम ऐसा नहीं होने देंगे। इसे विडंबना कहा जाएगा कि होलोकास्ट दिवस के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र में आयोजित कार्यक्रम में इस्रइल के राजदूत ने गाजा नरसंहार को जायज ठहराने की कोशिश की। इसे विकृत मानसिकता ही कहा जाएगा कि स्वयं पीड़ित रहा समुदाय दूसरे को पीड़ा पहुंचाने में सुख महसूस करे। हालांकि इस्रइल में भी कई ऐसे यहूदी बुद्धिजीवी हैं जो फिलिस्तीनियों के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं। अमेरिका में विरोध-प्रदर्शनों के दौरान भी कुछ यहूदी संगठन भाग लेते हैं। यह बात और है कि युद्धोन्माद के कोलाहल में उनकी आवाज अनसुनी हो जाती है।
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