एनजीओ : चंदे का धंधा अब नहीं

Last Updated 27 Jan 2024 01:51:47 PM IST

केंद्र में 2014 में नई सरकार के गठन के साथ ही यह खबरें आने लगी थी कि देश में उन संस्थाओं, समूहों व संगठनों की सक्रियता पर लगाम लगेगी जो कि गैर सरकारी संगठन( एनजीओ) के रूप में पंजीकृत है और जिन्हें देश के बाहर से पैसे मिलते हैं।


एनजीओ : चंदे का धंधा अब नहीं

हिन्दी की एक समाचार एजेंसी ने सरकार की खुफिया एजेंसी आईबी  की रिपोर्ट के हवाले से यह खबर प्रसारित की थी ‘विभिन्न गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) द्वारा अनेक विकास परियोजनाओं का विरोध किए जाने का देश की आर्थिक वृद्धि दर पर नकारात्मक असर होगा। आर्थिक वृद्धि पर यह नकारात्मक असर दो से तीन प्रतिशत हो सकता है।

आईबी ने अपनी रिपोर्ट ‘विकास पर एनजीओ के असर’ में यह निष्कर्ष निकाला है। आईबी की इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एनजीओ और उनके अंतरराष्ट्रीय दानदाता अब कई नई आर्थिक विकास योजनाओं को निशाना बनाने की योजना बना रहे हैं, जिनमें गुजरात की योजनाएं भी शामिल हैं। इस रिपोर्ट की प्रति प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त मंत्री तथा अन्य को भेजी गई है। इसमें आरोप लगाया गया है कि ये एनजीओ परमाणु ऊर्जा संयंत्रों, यूरेनियम खानों, कोयले से चलने वाले बिजलीघरों तथा पनिबजली परियोजनाओं के खिलाफ प्रदर्शन के साथ-साथ विकास योजनाओं को रोकने के लिए काम करते हैं।’

इस खबर में महत्त्वपूर्ण बात अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं की मदद है और यह भी कि दान पाने वाले किस तरह के संगठन व समूह सरकार के निशाने पर हैं। 2015 से लेकर 2023 के आखिर तक लगभग 16 हजार एनजीओ के विदेशी दान लेने के लाइसेंस रद्द किए जा चुके हैं। विदेशी दानदाताओं से मदद लेकर चलने वाले एनजीओ को एफसीआरए ( विदेशी दान नियंत्रक अधिनियम) के तहत  गृहमंत्रालय के अधीन पजीकरण कराना होता है। यह अधिनियम 1976 में बना था और समय-समय पर इसे संशोधित किया गया है। 1976 में यह अधिनियम तब बना था जब केंद्र सरकार पूरे देश में एनजीओ को अपने कार्यक्रमों व योजनाओं के लिए आवश्यकता महसूस करने लगी थी। पहले देश में एनजीओ नहीं होते थे।

स्वयंसेवी संस्थाएं, समूह व संगठन होते थे और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई स्वयंसेवी संस्थाएं खड़ी हुई थी। 1980 के बाद क्रमश: पूरी दुनिया की तरह भारत में भी स्वयंसेवी संस्थाओं को एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठन कहा जाने लगा। यह नामकरण इस तरह की संस्थाओं में उनके स्वरूप में होने वाले बुनियादी स्तर पर बदलाव के कारण हुआ। व्यवहारिक तौर पर दो तरह की स्थितियां होती है। किसी भी सत्ता में संगठनात्मक स्तर या कानून के रूप में जो भी बदलाव किया जाता है वह गरीबी के खिलाफ और विकास और राष्ट्र के नारे के साथ किया जाता है। पिछड़े व गरीब देशों को इस तरह के बदलाव के लिए अमीर सत्ताओं से दृष्टि मिलती है। 1976 के बाद से लगातार भारत में स्वयंसेवी संगठनों की जगह गैर सरकारी संगठनों के विस्तार को लेकर खुली बहस होती रही है।

सार्वजनिक स्तर पर उन संगठनों ने गैर सरकारी संगठनों के विस्तार की योजना की आलोचना की है जो कि गरीबों के बीच और पिछड़े इलाके में लोगों को संगठित करते रहे हैं। जागरूकता फैलाते रहे हैं, लेकिन सत्ताधारी दलों को राजनीतिक चुनौतियों से बचने के लिए गैर सरकारी संगठनों का विस्तार एक बेहतर रास्ता लगा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के दौरान विदेशों से दान प्राप्त करने के लिए 16000 एनजीओ के पंजीकरण को रद्द किया है, लेकिन दो और स्थितियां देखने को मिलती है। पहला तो यह कि वर्ष 2012-13 में विदेशी सहायता के तहत गैरसरकारी संगठनों समेत कई संस्थानों ने दुनियाभर के 164 देशों से कुल 11,838 करोड़ रु पए प्राप्त किए। इतनी राशि पाने वालों में कई और तरह की संस्थाओं के भी नाम हैं, लेकिन कड़ी नगरानी रखने के दावे के बावजूद यह तथ्य भी सामने आया है कि महज तीन साल 2109 से 2022 के बीच 13520 संस्थाओं ने 55 हजार 741.51 करोड़ रुपए विदेशी दान के रूप में प्राप्त किए हैं।  दूसरा तथ्य यह भी है कि केवल 2023 में 1111 संस्थाओं को इस अधिनियम के तहत नया पंजीकरण किया गया और इनमें लगभग आधी  संख्या उन संघटनों को है जो कि धार्मिंक ईसाई संगठन हैं।

गैर सरकारी संगठनों को लेकर सत्ता की एक दूरगामी योजना होती है तो दूसरी तरफ सत्ताधारी दल की तात्कालिक राजनीतिक जरूरतों का हिस्सा होती है। सत्ताधारी दल को कई तरह की चुनौतियों का विभिन्न स्तरों पर सामना करना पड़ता है। यदि 2014 में खुफिया विभाग की रिपोर्ट को यहां ध्यान में रखें तो यह स्पष्ट है कि किन क्षेत्रों को लेकर सरकार बेरोक टोक अपने नीतियों को लागू करना चाहती है और 2023 तक उन क्षेत्रों में तमाम तरह की गतिविधियों पर नजर डालकर पूरी तस्वीर स्पष्ट की जा सकती है। विदेशी दान पर अंकुश की पैरवी के दौरान बार-बार यह जोर देते देखा जा सकता है कि भारत के आर्थिक हितों पर चोट करने वाले एनजीओ के पंजीकरण रद्द किए जा रहे हैं। ये एनजीओ देश में विकास की परियोजनाओं के खिलाफ विरोध व कानूनी संघर्ष में विदेशी दान का इस्तेमाल करते हैं।

अपने देश में सत्ता बेरोकटोक अपने फैसलों को लागू करना चाहती है, जबकि इसे लोकतंत्र का जनक और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। अनुभवों में स्पष्ट दिखता है कि विकास के लिए लोकतंत्र की  गहरी मार समाज के कमजोर वगरे के लोकतंत्र और अधिकार पर पड़ती है। विकास के लिए श्रम के साथ जल जंगल और जमीन की जरूरत होती है। विकास की विचारधारा को पार्टियों ने अपनी आत्म बना ली और कमजोर समझे जाने वाले समुदायों व जातियों-वर्गों के बीच राजनीतिक संगठनों की सक्रियता नगण्य होती चली गई है। इस स्थिति में कमजोर वर्ग और उसके सामुदायिक, सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक और कानूनी अधिकारों को समझा जा सकता है। मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान हर वह संगठन व नागरिक राष्ट्र विरोधी करार दिया जाता था जो कि विकास के नाम पर लागू की जाने वाली परियोजनाओं पर सवाल खड़े करता था। मौजूदा सरकार में सेंटर फॉर पॉलिसी रिचर्स के विदेशी दान पंजीकरण को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि उसने कमीशन फ़ॉर एयर क्वालिटी मैनंजमेंट एक्ट 2021 की पड़ताल व विश्लेषण कर वायु प्रदूषण को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जो कि विदेशी दान कानून के खिलाफ हैं।

अनिल चमड़िया


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