मुद्दा : पैरोल का मखौल मत बनाएं
जब भी किसी अपराधी का अपराध सिद्ध हो जाता है तो उसे अदालत उचित सजा सुनाकर जेल भेज देती है। जेल में हर अपराधी, जो दोषी करार दिया जाने के बाद सज़ा काटता है उसे जेल के नियम के तहत अपनी सजा पूरी करनी पड़ती है।
मुद्दा : पैरोल का मखौल मत बनाएं |
अपराधी चाहे पेशेवर गुंडा हो, कोई आम आदमी हो जिसके द्वारा किसी विशेष परिस्थिति में अपराध हुआ हो या फिर कोई रसूखदार व्यक्ति हो, कानून सबके लिए एक समान है। परंतु क्या ऐसा वास्तव में होता है? क्या हमारे देश की जेलों में सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होता है? रसूखदार कैदियों के संदर्भ में इस सवाल का जवाब आपको ‘नहीं’ ही मिलेगा। ऐसा क्या कारण है कि जेल के नियम और कायदों को तोड़-मरोड़ कर रसूखदार कैदियों को ‘विशेष शिष्टाचार’ दिया जाता है?
आए दिन हमें ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती है जब किसी रसूखदार अपराधी के खिलाफ कोर्ट में केस चलता है और उसे सजा सुना कर जेल भेज दिया जाता है, परंतु आम जनता के मन में यही शक रहता है कि जेल में जा कर भी वो रसूखदार व्यक्ति ऐशो-आराम की जिंदगी ही जिएगा। हद तो तब हो जाती है जब यह प्रभावशाली अपनी सजा के दौरान ही कई बार पैरोल या फरलो मिल जाती है। यदि यह रसूखदार कैदी किसी ऐसे धार्मिंक पंथ का मुखिया हो जिसके करोड़ों भक्त हों, तो राज्य सरकार हर चुनाव से पहले उसे पैरोल या फरलो पर छोड़ने में देर नहीं करती।
आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां सत्ताधारी दल ने ऐसे रसूखदार कैदियों के लिए अधिकतम कदम उठा कर उसे अधिक से अधिक समय तक जेल से बाहर रखा है। ऐसे हालात में, ऐसे किसी भी कैदी, जिसे कैद-ए-बामशक्कत की सजा सुनाई गई हो उससे आप जेल में किसी भी तरह के श्रम की उम्मीद कैसे लगा सकते हैं? जब-जब ऐसे दुर्दात अपराधियों को जेल के नियम का दुरुपयोग कर जेल के बाहर भेजा जाता है तो पीड़ित परिवार खुद को बेबस महसूस करते हैं। ताजा मामला डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम का है। डेरा प्रमुख को दो हत्याओं और दो बलात्कार के मामलों में अदालत द्वारा दोषी पाया गया है, परंतु उल्लेखनीय है कि बीते दो वर्षो में यह अपराधी लगभग 250 से अधिक दिनों तक जेल के बाहर रहा। गौरतलब है कि जिस अपराधी पर इतने संगीन आरोप लगे हों और वो दोषी भी ठहराया गया हो उस पर इतनी मेहरबानी क्यों की जा रही है?
डेरा प्रमुख के 6 करोड़ से ज्यादा भक्त हैं, जो इनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। ऐसे में यदि इनके डेरे का झुकाव किसी एक राजनैतिक दल के साथ हो तो उस दल को इनके अनुयायिओं का वोट मिलना तो तय ही माना जाएगा। इसीलिए कई राजनैतिक दल इनका आशीर्वाद लेने की कतार में रहते हैं। सवाल उठता है कि क्या देश का कानून मामूली कैदियों और रसूखदार कैदियों के लिए अलग है? इस पर कानून के जानकारों का कहना है कि देश की सर्वोच्च अदालत ने ऐसे कई फैसले सुनाए हैं जहां पर पैरोल और फरलो दिए जाने के लिए निर्देश दिए गए हैं कि किन-किन परिस्थितियों में कैदियों को पैरोल और फरलो दिया जा सकता। इतने अधिक समय के लिए पैरोल और फरलो दिए जाने से कैदी को दी गई सजा के मायने ही कम हो जाते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि कोई रसूखदार कैदी बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराध करने के बावजूद अपने राजनैतिक संपकरे के चलते जेल प्रशासन को अपना ‘अच्छा चाल चलन’ दिखाने में कामयाब हो जाता है।
देश भर की जेलों में लगभग 6 लाख कैदी बंद हैं। इनमें से 75 प्रतिशत कैदियों का अभी तक ट्रायल भी पूरा नहीं हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि जिन कैदियों का ट्रायल पूरा नहीं हुआ उनके मानवाधिकार का हनन क्यों किया जा रहा है? उन्हें पैरोल और फरलो क्यों नहीं मिल रही? एक टीवी डिबेट में बोलते हुए महाराष्ट्र सरकार में जेल विभाग के प्रमुख रहीं पूर्व आईपीएस अधिकारी मीरा बोरवणकर ने कहा किसी भी राज्य के प्रिजन मैन्युअल को देखें तो पैरोल और फरलो दिये जाने के नियम साफ-साफ लिखे हैं। पैरोल केवल आपात स्थिति में दिया जाता है जब कैदी की निजी मौजूदगी अनिवार्य होती है। जैसे किसी परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाना या परिवार के सदस्य का विवाह। गुरमीत राम रहीम को लगातार दिए जाने वाले पैरोल पर सवाल उठाते हुए उनका कहना है कि ऐसी कौन सी आपात स्थिति थी, जिसके चलते उन्हें इतनी बार पैरोल दिया गया? यदि गुरमीत राम रहीम द्वारा कोई भी पीड़ित व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाए तो इसे तुरंत रद्द किया जा सकता है। गुरमीत राम रहीम जैसे रसूखदार कैदियों को चुनावों के आसपास ही पैरोल और फरलो क्यों मिलती है इस बात पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। देखना यह है कि क्या देश की सर्वोच्च अदालत चुनावों के आसपास होने वाले इस संयोग का संज्ञान स्वयं लेती है या नहीं?
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