भारत रत्न : देर आयद दुरुस्त आयद
Bharat Ratna to Karpoori Thakur : आज संपूर्ण देश और बिहार के लिए बेहद गर्व का क्षण है कि भारत सरकार ने बिहार के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता जननायक कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिए जाने की घोषणा की है।
भारत रत्न : देर आयद दुरुस्त आयद |
यह घोषणा उनकी जन्मशती की पूर्व संध्या पर की गई। वह सर्वोच्च नागरिक सम्मान पाने वाले बिहार के पांचवे व्यक्ति होंगे। उनसे पहले प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण, विधान चंद्र राय तथा बिसमिल्लाह खां को भारत रत्न से नवाजा जा चुका है। देर ही सही लेकिन इस सर्वोच्च सम्मान के लिए भारत सरकार बधाई की पात्र है।
शिक्षा मंत्री के तौर पर कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में मैट्रिक तक पढ़ाई मुफ्त की तथा राज्य के सभी विभागों में हिन्दी में काम करने को अनिवार्य बना दिया तथा उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा दे दिया। उन्होंने अपने कार्यकाल में गरीबों, पिछड़ों और अति पिछड़ों के हक में ऐसे तमाम काम किए जिनसे बिहार की सियासत में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। इसके बाद कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक ताकत में जबरदस्त इजाफा हुआ और वो बिहार की सियासत में समाजवाद का बड़ा चेहरा बन गए। जननायक कर्पूरी ठाकुर को बिहार ही नहीं, संपूर्ण भारत की सियासत में सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाले प्रथम नेता के रूप में याद किया जाता है। इसी कारण बिहार की जनता ने उन्हें भीड़ का आदमी, बिहार का गांधी, झोपड़ी का लाल, घर का आदमी, शोषितों-वंचितों का मसीहा के सम्मान से नवाजा। कमजोर वगरे को सशक्त बनाने की दिशा में उनके सफल प्रयासों के अलावा, विधायी व्यवस्था में उनका हस्तक्षेप काफी प्रभावशाली और सराहनीय रहा है।
वर्ष 2003 में बिहार सरकार ने दो खंडों में उनके विधायी हस्तक्षेपों और बहसों को प्रकाशित किया था ताकि देश उनके संसदीय जीवन से सीख ले सके। आज के दौर में जननायक कर्पूरी ठाकुर के जीवन और उनके राजनीतिक उतार- चढ़ाव से लोगों को अवश्य सीख लेनी चाहिए। यह उस व्यक्ति की राजनीतिक सादगी है, जिसने अपना संपूर्ण जीवन समाज के वंचित वगरे तथा दलितों के सामाजिक और राजनीतिक उत्थान तथा सशक्तिकरण हेतु समर्पित कर दिया। इसी कारण सामाजिक संरचना की बेहद कमजोर जातियों ने इतना सम्मान दिया और आजीवन चुनाव जीतते रहे। एक साधारण व्यक्ति एवं एक जन नेता के रूप में कर्पूरी ठाकुर, बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास, फुले दंपति, फातिमा शेख, नारायण गुरु, पेरियार, संत गाडगे महाराज, महात्मा गांधी एवं डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों द्वारा शुरू किए गए सामाजिक परिवर्तन की परंपरा को आगे लेकर बढ़े। कर्पूरी ठाकुर ने महात्मा गांधी के अंत्योदय से सर्वोदय एवं लोहिया के विशेष अवसर के सिद्धांत को काफी हद तक जमीन पर उतारने का काम किया। 1967 में जब वे शिक्षा मंत्री के साथ-साथ उपमुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने स्कूली छात्रों के लिए अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। शिक्षा को और अधिक सुलभ बनाते हुए कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों के लिए शुल्क मुक्त करने का काम किया। इससे बिहार में विवाद हुआ और उनकी खूब आलोचना की गई लेकिन इससे वंचित वगरे के लिए शिक्षा के दरवाजे हमेशा के लिए खुल गए। इस नीति से उत्तीर्ण होने वाले अभ्यर्थियों का ‘कर्पूरी डिवीजन’ के रूप में मजाक बनाया गया।
कर्पूरी ठाकुर जिस जाति-समुदाय से ताल्लुक रखते थे वह जाति-समुदाय संख्यात्मक रूप से न तो प्रभावशाली था और न ही ताकतवर, फिर भी वह कभी कोई विधानसभा चुनाव नहीं हारे। उनका प्रमुख ध्येय वंचितों का सशक्तिकरण रहा। शाहूजी महाराज और डॉ. अंबेडकर के बाद पिछड़ी जातियों और अत्यंत पिछड़ी जातियों के आरक्षण के सिद्धांत को लागू करने का श्रेय कर्पूरी ठाकुर को जाता है। आज जब अति पिछड़ी जातियां अपने सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के प्रति लामबंद हो रही हैं, और केंद्रीय स्तर पर आरक्षण के वर्गीकरण हेतु मांग कर रही हैं, तब सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों को सोचना चाहिए कि कर्पूरी ठाकुर अपने समय से आगे की राजनीति कर रहे थे और उसी दूरदर्शिता का परिणाम था कि उन्होंने आरक्षण को दो भागों, पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग, में लागू किया। साथ ही, आर्थिक रूप से कमजोर वगरे और महिलाओं के लिए आरक्षण देने का भी काम किया। वह केवल पिछड़ों, अति पिछड़ों तथा दलितों की वकालतंही नहीं करते थे बल्कि सभी वगरे की वंचित जातियों की भी वकालत करते थे।
आज जब कई जाति-समुदायों को राशन पर बिकने वाला घोषित कर दिया जा रहा है तब कर्पूरी ठाकुर ने ‘पूरा राशन, पूरा काम, नहीं तो होगा चक्का जाम’ जैसा नारा गढ़ा था जो खूब लोकप्रिय हुआ और वंचितों को संगठित करने में इसने अहम भूमिका अदा की। वर्तमान राजनीति में पिछड़ी जातियों के नेताओं की पकड़ अत्यंत पिछड़ी जातियों में कम होती जा रही है, जिससे सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कमजोर हुए हैं। आज ओबीसी का एक बड़ा धड़ा अपने सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ है, लेकिन अति पिछड़ी जातियां जैसे- गड़रिया, जोगी, धीवर, नाई, कुम्हार, लोहार, निषाद आदि असंख्य जातियों के पास अभी भी अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं को व्यक्त करने के लिए अपना स्वयं का मंच नहीं है।
वर्तमान राजनीति में जननायक कर्पूरी ठाकुर सही मायनों में सामाजिक न्याय के प्रथम शिल्पकार बन चुके हैं। उनका राजनीतिक जीवन तीन चरणों से अवश्य गुजरा जिसमें पहले चरण में उन्हें अधिकांश जाति समूहों का समर्थन प्राप्त था, दूसरे चरण में उन्हें पिछड़ी जाति के नेता के रूप में जाना गया जबकि तीसरे चरण में अत्यंत पिछड़ी जाति और दलित नेता के रूप में पहचाना गया लेकिन आज कर्पूरी ठाकुर इन तीनों वगरे के नेता के रूप में नहीं याद किए जा रहे, बल्कि संपूर्ण देश उन्हें भारत रत्न जननायक के रूप में याद कर रहा है। वर्तमान राजनीति में ज्यों-ज्यों सामाजिक संरचना की सबसे वंचित जातियां अपने सामाजिक आत्मसम्मान के प्रति जागरूक होती जाएंगी, उनका कद राष्ट्रीय राजनीति में दिन ब दिन बड़ा होता जाएगा। यह सर्वोच्च सम्मान न केवल उनके उल्लेखनीय योगदान का सम्मान करता है, बल्कि हमें एक न्यायसंगत समाज बनाने और उनके सपनो को साकार करने के लिए भी प्रेरित करता है।
(सहलेखक पंकज चौरसिया जामिया विवि में शोधार्थी हैं)
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