स्मरण : चलो अब उठ लिया जाए तमाशा खत्म..

Last Updated 16 Jan 2024 12:48:41 PM IST

मुनव्वर राना का जाना एक ऐसे शायर का जाना है, जिसकी मां पर लिखी पंक्तियां शायद सबसे अधिक पढ़ीं और साझा की गई। हिन्दी और उर्दू के बीच बहन का रिश्ता मानने वाले, साझी विरासत के अलम्बरदार राना अपनी बेबाकी के कारण कई बार विवादों में रहे और लोगों के निशाने पर भी। पिछले कई वर्षो से अस्वस्थ होते और उससे जूझकर बाहर निकलते रहे, लेकिन इस रविवार की रात वे यह जंग हार गए।


मुनव्वर राना

रायबरेली के रहने वाले पिता सैय्यद अनवर अली और माता आएशा खातून के घर 26 नवम्बर 1952 को सैय्यद मुनव्वर अली का जन्म हुआ जो आगे चल कर मुनव्वर राना के रूप में दुनिया भर में जाने गए। उनको ये नाम उस जमाने के मशहूर शायर वाली आसी ने दिया। इससे पहले वो अपने तखल्लुस आतिश के नाम से शायरी किया करते थे। छह भाईयों इस्माईल, राफे, जमील, शकील, याहिया और एक बहन शाहीन के बीच सबसे बड़े मुनव्वर राना की प्रारंभिक पढ़ाई-लिखाई रायबरेली में ही हुई। फिर 1968 में मुनव्वर अपने ट्रांसपोर्टर पिता का हाथ बंटाने कोलकाता पहुंच गए और वहीं से बी. कॉम किया। कोलकाता में रहते हुए उनका उठना-बैठना कुछ नक्सली गुटों के साथ हो गया था, जिसकी भनक लगते ही उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया था।

आखिरकार उनकी जिंदगी लखनऊ  आ कर ठहर गई। इसी शहर में अपनी बेगम रैना राणा और छह बच्चों तबरेज, सुमैया, उरूषा, फौजिया, अर्शिया और हिबा के साथ पुश्तैनी व्यवसाय और साहित्य सेवा में लगे रहे। मुनव्वर राणा के साहित्य और शेरो-शायरी में आम इंसान के दर्द बखूबी झलकता था। उर्दू के साथ साथ हिंदी में भी लिखते रहे। हिंदी और उर्दू को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए वो लिखते हैं, ‘लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।’ मुनव्वर राणा को उनकी बेबाकी और तल्खअंदाजी के लिए भी जाना जाता है। वो अपनी शायरी में बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात बयां कर देते थे जिस वजह से अक्सर विवादों में भी रहे। बचपन में बंटवारे का दौर याद कर और हिन्दुस्तान पाकिस्तान में बिखराव को याद करते हुए उन्होंने नज्म लिखी ‘मुहाजिरनामा’ जिसे दुनिया भर में शोहरत मिली।

मुहाजिरनामा में बंटवारे के दर्द को यूं लिखते हैं कि-

नई दुनिया बसा लेने की इक कमजोर चाहत में
पुराने घर की दहलीजों को सूना छोड़ आए हैं।

अकीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बांधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।

सभी त्योहार मिल-जुलकर मनाते थे वहां जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।

उनकी नज्म ‘मां’ में वो बेहद करीने से मां के किरदार को रेखांकित करते हुए कहते हैं ‘मैंने रोते हुए पोछे थे किस दिन आंसू, मुद्दतों मां ने नहीं धोया दुपट्टा अपना।’  लगभग हर मौजू पर शायरी करने वाले मुनव्वर बीमारी पर भी कहते हैं ‘मुहब्बत के लिए थाड़ी सी रूसवाई जरूरी है, शक्कर के डर से बुजदिल लोग मीठा छोड़ देते हैं। मुनव्वर साहब अपनी मेहमाननवाजी के लिए भी जाने जाते रहे। जो भी एहतराम के साथ दरवाजे पर पहुंचा कभी निराश नहीं लौटा। इस मौजूं पर भी वो कहते हैं ‘फकीरों की ये कुटिया है फरावानी नहीं होगी, मगर जब तक रहोगे हां परेशानी नहीं होगी।’ काफी वक्त तक मुनव्वर साहब तमाम गंभीर बीमारियों से जूझते रहे, एक वक्त था जब किसी अस्पताल में भर्ती हुए तो दर्द अश्आर के रूप में यूं लिखा:

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊं
जिस शान से आया हूं उसी शान से जाऊं

उतार चढ़ाव के बीच मुनव्वर साहब का विवादों ने भी पीछा नहीं छोड़ा और वजह रही उनकी बेबाकी। अवार्ड वापसी हो, दादरी विवाद में उनकी टिप्पणी हो, चार्ली हैब्दो प्रकरण रहा हो या तालिबान के संदर्भ में उनका बयान, इन सभी पर उनकी तीखी आलोचना भी हुई, लेकिन शायरी के मंच पर हमेशा उनकी पताका फहराती रही। शायरी के चाहने वालों की भीड़ कभी उनके बयानों के आड़े नहीं आई।

विभिन्न प्रकाशनों से आपकी बहुत सी किताबें छपीं, जिनमें पीपल छांव, मां, फिर कबीर, बगैर नक्शे का मकान, नीम के फूल, घर अकेला हो गया, बदन सराय, गजल गांव, चेहरे याद रहते हैं, सफेद जंगली कबूतर, मुहाजिरनामा, नए मौसम के फूल, कहो जिल्ले इलाही से आदि बेहद लोकप्रिय हुई। उन्हें 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया, इसके अलावा गालिब अवार्ड, डॉ. जाकिर हुसैन पुरस्कार, कविता का कबीर सम्मान, अमीर खुसरो पुरस्कार, भारती परिषद् पुरस्कार, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अवार्ड, सरस्वती समाज पुरस्कार, मीर पुरस्कार जैसे दर्जनों सम्मान से नवाजा गया। उन्हें उप्र उर्दू अकादमी का अध्यक्ष भी मनोनीत किया गया, लेकिन स्वच्छंद जीवनशैली जीने वाले मुनव्वर साहब को सरकारी बंदिशें रास नहीं आई और इस्तीफा सौंप दिया। क्या पता था कि इक रोज मुनव्वर की लिखी ये लाईन यूं ही लिखनी होगी कि:

बहुत दिन रह लिए दुनिया के सर्कस में तुम ऐ राना
चलो अब उठ लिया जाए तमाशा खत्म होता है।

आलोक श्रीवास्तव


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