भारतीय संस्कृति : आस्था का तकाजा

Last Updated 06 Jan 2024 01:28:28 PM IST

संस्कृतियों को लेकर दुविधा की स्थिति बनी ही रहती है जबकि यह शात सत्य है कि उन संस्कृतियों का नाश हो जाता है, जो जड़ होती हैं।


भारतीय संस्कृति : आस्था का तकाजा

अमूमन कोई भी समाज अपनी संस्कृति को बचाने की हरसंभव कोशिश करता है। रही बात भारतीय समाज की तो यह कई समाजों का एक समुच्चय है। इनमें समन्वय बना रहे, इसके लिए संविधान में धर्मनिरपेक्षता की बात कही गई है।

अतीत की ओर लौटें तो हम पाते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम वर्षो 1954-55 में ‘हिन्दू धर्म की पहेलियां’ (रिडल्स इन हिन्दुइज्म) लिखने के बाद अंतिम किताब ‘बुद्धा एंड धम्मा’ लिखी।

हालांकि उनकी किताबों को एक खास वर्ग के लिए बता कर सीमित करने का प्रयास किया गया जबकि वे अपनी इस चिंतन प्रक्रिया में जाति की उत्पत्ति के प्रश्न पर चिंतन करते हुए बुद्ध तक पहुंचते हैं। इस चिंतन पद्धति में वे कुछ बिंदुओं को रेखांकित करते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि जाति-व्यवस्था भारत की प्रमुख समस्या है, जो लोगों की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। यह भी देखा जाना चाहिए कि 1916 के अपने पहले शोध में वे जाति व्यवस्था के उदय, उसके तंत्र एवं कार्यप्रणाली के बारे में बताते हैं कि कैसे यह व्यवस्था लोगों के विकास में बाधक है। वहीं 1936 में ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पुस्तक में वह जाति-व्यवस्था को खत्म करने के संदर्भ में सभी आंदोलनों-गांधी के आंदोलन, हिन्दू महासभा और वामपंथी आंदोलनों समेत विभिन्न विचारधारा के आंदोलन-की समीक्षा करते हैं।

दरअसल, डॉ. अंबेडकर ने जो राह दिखाई थी, वह समतामूलक समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है। संविधान भी इसी बुनियादी मूल्य पर आधारित है और उसके प्रमुख उद्देश्यों में भारतीयों में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना है, लेकिन इसके बरअक्स होता यह है कि बहुसंख्यक समाज मनमानियां करता है। यह केवल भारत की बात नहीं है। वैश्विक स्तर पर ऐसी स्थितियां हैं। भारत के मामले में चिंतनीय सवाल यह है कि सत्ता पक्ष ऐसी संस्कृति को प्रतिष्ठित कर रहा है, जिसकी दिशा ही अतीतोन्मुखी है वहीं विपक्ष की मजबूरी ऐसी है कि वह सत्ता पक्ष का ढंग से विरोध भी नहीं कर पा रहा। विरोध के बरक्स तो वह सत्ता पक्ष के मार्ग का ही अनुसरण करने को बाध्य है। हालांकि विपक्ष के कुछ नेता आवाज उठा रहे हैं।

मसलन, सीताराम येचुरी, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन, उत्तर प्रदेश में सपा के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य आदि उदाहरण हैं। लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। विपक्षी दलों के बड़े नेताओं यथा राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, हेमंत सोरेन आदि इस मामले में अपनी जुबान बंद रखने में ही भलाई समझ रहे हैं। यह पूर्व से ही घोषित है कि 22 जनवरी, 2024 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में नवनिर्मिंत राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम का आगाज करेंगे। आजाद भारत के इतिहास में पहला अवसर होगा जब सत्ता पक्ष धर्म विशेष के आयोजन में प्रत्यक्ष भूमिका निभाएगा। हालांकि यह भी जगजाहिर है कि इसके पीछे सियासत है, जिसकी पृष्ठभूमि में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति है। चूंकि इसी साल देश में चुनाव होने हैं, तो प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम को व्यापक रूप दिया जा रहा है। अब यह सवाल शेष नहीं रह गया है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। लेकिन यह सवाल तो मौजूं है कि इसका भविष्य में क्या असर होगा?

आज सत्ता पक्ष के पास प्रचंड बहुमत है तो वह अपने हिसाब से कार्यक्रमों को क्रियान्वित कर रहा है। उसके लिए गंगा आरती और प्राण-प्रतिष्ठा जैसे कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन युवा पीढ़ी, जो तकनीकी विकास को बखूबी समझती है, को इन कार्यक्रमों से निराशा ही मिलती है। आज वह सोचने को मजबूर है कि क्या इस तरह ही भारतीय समाज और संस्कृति को सुसंगत तरीके से आगे बढ़ाया जा सकता है? सबसे अधिक निराशा तो उन समाजों में है, जिनके ऊपर निशाना साधा जा रहा है।

उनकी स्थिति तो यह है कि वे कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन उनके मौन के गहरे निहितार्थ हैं। दरअसल, राम मंदिर के निर्माण और अयोध्या को धार्मिंक नगरी के रूप में स्थापित करने में भले ही सरकार के स्तर पर कोई बाधा न हो, लेकिन इसका यह संदेश जरूर जाएगा कि एक तरफ भारत चांद पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है और सूरज की भी टोह ले रहा है, तो दूसरी तरफ शास्त्रीय कर्मकांडों को बढ़ावा दे रहा है। कोई भी समाज आगे बढ़े और संस्कृति-समुन्नत हो, इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है। यदि यह वैज्ञानिकता नहीं होगी तो आने वाले समय में भारतीय समाज केवल कर्मकांडों में फंसे रहने वाला समाज बना रहेगा। इसका सबसे अधिक शिकार वे वर्ग होंगे जो सदियों से उपेक्षा और भेदभाव झेल रहे हैं।

आजादी के 75 सालों में उनके जीवनशैली में बदलाव स्पष्ट तौर पर दिखने लगे हैं। यह केंद्र  सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में भी शिक्षा का स्तर बढ़ा है। इसके कारण जातिगत भेदभाव की बेड़ियां भी कमजोर हुई हैं। लोगों के अंदर वैज्ञानिक चेतना का विकास हो रहा है। इसका प्रमाण स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े भी हैं। अस्पतालों में संस्थागत प्रसवों के कारण नवजातों की मौत में सकारात्मक परिवर्तन आया है। पोषण को लेकर भी लोगों के विचार बदले हैं। यह सब शिक्षा के कारण हुआ है। अब सवाल यह है कि राजनीति के स्तर पर इन दिनों जो कुछ किया जा रहा है, उसका परिणाम क्या होगा? क्या इसकी संभावना मजबूत नहीं होती है कि लोग फिर से कर्मकांडों की ओर लौटेंगे और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खारिज करेंगे?

अगर हम कुछ संभावित परिणामों पर विचार करें तो हम पाएंगे कि सांप्रदायिक राजनीति से भारत का भला नहीं होने वाला। चूंकि देश में बहुमत खास धर्म को मानने वाले लोगों का है, तो उनके अंदर वर्चस्ववाद को बढ़ावा मिलेगा। हालत तो यह है कि विविद्यालयों तक को इस तरह की तिकड़मों में शामिल किया जा रहा है। वहां अतीत की सत्ता पक्ष के नजरिए से व्याख्या की जा रही है। बहरहाल, राजनीति में नैरेटिव की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका हो गई है लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे नैरेटिव, जो देश में खास धर्म के लोगों का ही वर्चस्व हों, भारतीय संस्कृति,  जिसके मूल में आपसी भाईचारा रहा है, को रोज-ब-रोज विद्रूपित करते रहेंगे। याद रखा जाना चाहिए कि धार्मिंक आस्थाएं लोगों को आगे सोचने का मौका ही नहीं देतीं। समय रहते सत्ता पक्ष चेत जाए और विपक्ष भी।

नवल किशोर कुमार


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